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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
१४७ पूर्व पुरुषों की बात को विवेकपूर्वक स्वीकार करे, तो वह नवीन युग के स्रष्टाओं का भी आँख मूंदकर अनुसरण न करे, भले ही वे डार्विन, मार्क्स या फ्रायड हों। विभिन्न कार्य-क्षेत्र
क्रमागत भारतीय समाज-व्यवस्था का स्वरूप रहा है-नारी घर को सम्भाले, भोजनपानी की व्यवस्था करे, बच्चों की सार-सम्भाल करे । शेष सब पुरुष करें। इस व्यवस्था में स्त्री के पल्ले बहुत ही सीमित दायित्व रहता है । सीमित दायित्व में नारी का विकास भी सीमित ही रह जाता है। वर्तमान युग का मानदण्ड बन गया है, स्त्री पुरुष के सभी प्रकार के दायित्व में हाथ बटाएँ और उसे बल दे। शिक्षा, साहित्य, राजनीति, वाणिज्य और सार्वजनिक क्षेत्र में पुरुष जितना ही दायित्व वह अपना समझे। प्रश्न आता है इससे गृह-व्यवस्था भंग हो जायेगी । पारिवारिक जीवन अस्तव्यस्त हो जायेगा । यह प्रश्न यथार्थ नहीं है। गृहकार्य का सामंजस्य बिठाकर भी महिला अन्य किसी भी क्षेत्र में सुगमता से कार्य कर सकती है । एक वकील अपनी वकालत भी चलाता है, सार्वजनिक क्षेत्र व राजनीति में भी सुगमता से कार्य करता है । देखा जाता है, वह अपने दोनों क्षेत्रों में शीर्षस्थ स्थिति तक पहुँचता है । अन्य अनेक लोग बड़े-बड़े विभिन्न दायित्व एक साथ संभालते हैं । नारी के लिये ही ऐसा क्यों सोचा जाये कि वह अन्य क्षेत्रों में आई, तो घर चौपट हो जायेगा। आथिक दायित्व
भारत में ऐसी परम्परा भी व्यापक रूप से रही है कि परिवार में एक कमाये और दस व्यक्ति बैठे-बैठे खायें । धनिकों, उद्योगपतियों एवं बड़ी नौकरीवालों के ऐसा निभता भी रहा है । युग समाजीकरण की ओर बढ़ रहा है । कानून और व्यवस्थाएँ निम्न वर्ग के पक्ष में जा रही हैं । अधिक संग्रह विभिन्न प्रकार से रोके जा रहे हैं । इस स्थिति में चन्द उद्योगपतियों को छोड़कर कोटि-कोटि मध्यम वर्गीय लोगों के लिये तो यह असम्भव ही होता जा रहा है कि एक कमाये और परिवार के अन्य दस बैठे-बैठे खायें । अस्तु, नारी के लिये चिन्तनीय विषय इतना ही है कि किस प्रकार की आजीविका या व्यवसाय को अपनाये, जिससे उसके गृह-दायित्व एवं आचरण पर कोई आँच न आये। कला और सामाजिक श्लाध्यता
अभिनेता और अभिनेत्री, ये दो शब्द समाज में बहुचर्चित हो चले हैं। युवक और युवतियाँ इस ओर कटिबद्ध हो रहे हैं। माता-पिता के चाहे-अनचाहे वे इस ओर बढ़े ही जा रहे हैं। भारत में जब चलचित्रों का निर्माण शुरू हुआ तब निर्माताओं को अभिनय के लिये युवतियाँ सुगमता से मिलती ही नहीं थीं। समाज में इस कार्य को अश्रेष्ठ माना जाता था, अतः लड़कियाँ इस ओर आने का साहस ही नहीं करतीं। अब अभिनेत्रियों की बाढ़-सी आ गई है। इस प्रकार के व्यवसाय देश में पहले भी किसी रूप में चलते थे। पर समाज में वे उच्चता की भावना से नहीं देखे जाते थे। अब इस पहलू को चारों ओर से उभार मिल रहा है। प्रशासन उन्हें सम्मानित करता है। समाज कुछ-कछ ऊँची निगाहों से देखने लगा है। साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं ने भी उनके लिये स्वतन्त्र पृष्ठ खोल दिये हैं। व्यावसायिक लोगों के विज्ञापन का निरुपम प्रतीक अभिनेत्री ही बन गई है। अभिनेता और अभिनेत्रियों के साक्षात् मात्र के लिये लाखों लोग एकत्रित हो जाते हैं। समाज में सभी प्रकार के व्यवसाय चलते हैं। श्रेष्ठता की छाप उस पर जब लगाई जाये, तब यह अवश्य सोचना चाहिये, यह हमारी संस्कृति के अनुरूप है या नहीं। किसी युवती का किसी पुरुष के साथ सार्वजनिक रूप से अभिनय करना श्लाघ्य नहीं है। समाज में उसे प्रतिष्ठित करने का तात्पर्य है, समाज की युवतियाँ सामूहिक रूप से इस ओर प्रवृत्त हों। यह
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