Book Title: Sajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Shashiprabhashreeji
Publisher: Jain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur

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Page 563
________________ खण्ड ५ : नारी - त्याग, तपस्या सेवा की सुरसरि १३५ आधार पर नहीं अपितु अपनी कामवासना और प्रतिष्ठा के लिए बहुविवाह की प्रथा आरम्भ हो गयी । यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि यद्यपि समाज में बहुविवाह की प्रथा प्रचलित थी किन्तु इसे जैनधर्मसम्मत एक आचार मानना अनुचित होगा। क्योंकि जब जैनों में विवाह को ही एक अनिवार्य धार्मिक कर्तव्य के रूप में स्वीकार नहीं किया गया तो बहुविवाह को धार्मिक कर्तव्य के रूप में स्वीकार करने का प्रश्न ही नहीं उठता। जैन आगम और आगमिक व्याख्या साहित्य में यद्यपि पुरुष के द्वारा बहुविवाह के अनेक सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं किन्तु हमें एक भी ऐसा सन्दर्भ नहीं मिलता जहाँ कोई व्यक्ति गृहस्थोपासक के व्रतों को स्वीकार करने के पश्चात् बहुविवाह करता है । यद्यपि ऐसे सन्दर्भ तो हैं कि मुनिव्रत या श्रावकव्रत स्वीकार करने के पूर्व अनेक गृहस्थोपासकों की एक से अधिक पत्नियाँ थीं । किन्तु व्रत स्वीकार करने के पश्चात् किसी ने अपनी पत्नियों की संख्या में वृद्धि की हो, ऐसा एक भी सन्दर्भ मुझे नहीं मिला । आदर्श स्थिति तो एक पत्नी प्रथा को ही माना जाता था । उपासकदशा में १० प्रमुख उपासकों में केवल एक की ही अधिक पत्नियाँ थीं । साथ ही उस में श्रावकों के व्रतों के जो अतिचार बताये गये हैं उनमें स्वपत्नी सन्तोष व्रत का एक अतिचार पर विवाहकरण है ।1 यद्यपि कुछ जैनाचार्यों ने पर विवाहकरण का अर्थ स्व-सन्तान के अतिरिक्त अन्यों की सन्तानों का विवाह सम्बन्ध करवाना माना है। किन्तु उपासकदशांग की टीका में आचार्य अभयदेव ने इसका अर्थ एक से अधिक विवाह करना माना है । अतः हम यह कह सकते हैं कि धार्मिक आधार पर जैनधर्म बहुपत्नी प्रथा का समर्थक नहीं है । बहुपत्नी प्रथा का उद्देश्य तो वासना में आकण्ठ डूबना है और निवृत्तिप्रधान जैनधर्म की मूल भावना के अनुकूल नहीं है । जैन ग्रन्थों में जो बहुपत्नी प्रथा की उपस्थिति के संकेत मिलते हैं वे उस युग की सामाजिक स्थिति के सूचक हैं | आगम साहित्य में पार्श्व, महावीर, एवं महावीर के नौ प्रमुख उपासकों की एक पत्नी मानी गई है । विधवा विवाह एवं नियोग यद्यपि आगमिक व्याख्या साहित्य में नियोग और विधवा-विवाह के कुछ सन्दर्भ उपलब्ध हो जाते हैं किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि ये भी जैनाचार्यों द्वारा समर्थित नहीं है । निशीथचूर्णि में एक राजा को अपनी पत्नी से नियोग के द्वारा सन्तान उत्पन्न करवाने के सन्दर्भ में यह कहा गया है कि जिस प्रकार खेत में बीज किसी ने भी डाला हो फसल का अधिकारी भूस्वामी ही होता है । उसी प्रकार स्वस्त्री से उत्पन्न सन्तान का अधिकारी उसका पति ही होता है । यह सत्य है कि एक युग में भारत में नियोग की परम्परा प्रचलित रही किन्तु निवृत्तिप्रधान जैनधर्म ने न तो नियोग का समर्थन किया न ही विधवा विवाह का । क्योंकि उसकी मूलभूत प्रेरणा यही रही कि जब भी किसी स्त्री या पुरुष को कामवासना से मुक्त होने का अवसर प्राप्त हो वह उससे मुक्त हो । जैन आगम एवं आगमिक व्याख्याओं में हजारों सन्दर्भ प्राप्त हैं जहाँ पति की मृत्यु के पश्चात् विधवायें भिक्षुणी बनकर संघ की शरण में चली जाती थीं । जैन संघ में भिक्षुणियों की संख्या के अधिक होने का एक कारण यह भी था कि भिक्षुणी संघ विधवाओं के सम्मानपूर्ण एवं सुरक्षित जीवन जीने का आश्रयस्थल था । यद्यपि कुछ लोगों द्वारा यह कहा जाता है कि ऋषभदेव ने मृत युगल की पत्नी से विवाह करके विधवा-विवाह की परम्परा को स्थापित २. उवासकदसा, अभयदेवकृतवृत्ति पृ० ४३ १. उवासकदसा १, ४८ । ३. निशीथचू णि, भाग २, ३८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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