Book Title: Sajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Shashiprabhashreeji
Publisher: Jain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur

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Page 564
________________ १३६ जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन किया था । किन्तु आवश्यक चूर्णि से स्पष्ट होता है कि वह स्त्री मृत युगल की बहन थी, पत्नी नहीं। क्योंकि उस युगल में पुरुष की मृत्यु बालदशा में हो चुकी थी। अतः इस आधार पर विधवा विवाह का समर्थन नहीं होता है । जैनधर्म जैसे निवृत्तिप्रधान धर्म में विधवा-विवाह को मान्यता प्राप्त नहीं थी। विधुर-विवाह जब समाज में बहु-विवाह को समर्थन हो तो विधुर-विवाह को मान्य करने में कोई आपत्ति नहीं होगी । किन्तु इसे भी जैनधर्म में धार्मिक दृष्टि से समर्थन प्राप्त था, यह नहीं कहा जा सकता । पत्नी की मृत्यु के पश्चात् आदर्श स्थिति तो यही मानी गई थी कि व्यक्ति वैराग्य ले ले । मात्र यही नहीं अनेक स्थितियों में पति, पत्नी के भिक्षुणी बनने पर स्वयं भी भिक्ष बन जाता है । यद्यपि सामाजिक जीवन में विधुर-विवाह के अनेक प्रसंग उपलब्ध होते हैं । विवाहेतर यौन सम्बन्ध जैनधर्म में पति-पत्नी के अतिरिक्त अन्यत्र यौन सम्बन्ध स्थापित करना धार्मिक दृष्टि से अनुचित माना गया । वेश्यागमन और परस्त्रीगमन दोनों को ही अनैतिक कर्म माना गया। फिर भी न केवल गृहस्थ स्त्री-पुरुष अपितु भिक्ष -भिक्ष णियाँ भी अनैतिक यौन सम्बन्ध स्थापित कर लेते थे। आगमिक व्याख्या साहित्य में ऐसे सैकड़ों प्रसंग उल्लिखित हैं जिनमें ऐसे सम्बन्ध हो जाते थे । जैन आगमों और उनकी टीकाओं आदि में ऐसी अनेक स्त्रियों का उल्लेख मिलता है जो अपने साधना-मार्ग से पतित होकर स्वेच्छाचारी बन गयी थीं। ज्ञाताधर्मकथा उसकी टीका, आवश्यक चूणि आदि में पार्श्वपत्थ परम्परा की अनेक शिथिलाचारी साध्वियों के उल्लेख मिलते हैं । ज्ञाताधर्मकथा में द्रौपदी का पूर्व जीवन भी इसी रूप में वर्णित है । साधना काल में वह वेश्या को पांच पुरुषों से सेवित देखकर स्वयं पाँच पतियों की पत्नी बनने का निदान कर लेती है। निशीथचूणि में पुत्रियों और पुत्रवधू के जार अथवा धूर्त व्यक्तियों के साथ भागने के उल्लेख हैं। आगमिक व्याख्याओं में मुख्यतः निशीथचूणि, बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य आदि में ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं जहाँ स्त्रियाँ अवैध सन्तानों को भिक्ष ओं के निवास स्थानों पर छोड़ जाती थीं। आगम और आगमिक व्याख्यायें इस बात की साक्षी हैं कि स्त्रियाँ सम्भोग के लिए भिक्ष ओं को उत्तेजित करती थीं उन्हें इस हेतु विवश करती थीं और उनके द्वारा इन्कार किये जाने पर उन्हें बदनाम किये जाने का भय दिखाती थीं। आगमिक व्याख्याओं में इन उपरिस्थितियों में भिक्ष को क्या करना चाहिए इस सम्बन्ध में अनेक आपवादिक नियमों का उल्लेख मिलता है । यद्यपि शीलभंग सम्बन्धी अपराधों के विविध रूपों एवं सम्भावनाओं के उल्लेख जैन परम्परा में विस्तार से मिलते हैं किन्तु इस चर्चा का उद्देश्य साधक को वासना सम्बन्धी अपराधों से विमुख बनाना ही रहा है। यह जीवन का यथार्थ तो था किन्तु जैनाचार्य उसे विकृतपक्ष मानते थे और उस आदर्श समाज की कल्पना करते हैं, जहाँ इनका अभाव हो । १. ज्ञाताधर्मकथा, द्वितीयश्रु त स्कन्ध, प्रथम वर्ग, अध्याय २-५ ___ द्वितीय वर्ग, अध्याय, ५ तृतीय वर्ग, अध्याय १-५४ २. ज्ञाताधर्म कथा, प्रथमश्र तस्कन्ध, अध्याय १६, सूत्र ७२-७४ । ३. निशीथचूणि, भाग ३ पृ० २६७ । ४. निशीथचूणि भाग २, पृ० १७३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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