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जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन
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यह निश्चित ही सत्य है कि आगमिक काल के जैनाचार्यों ने मल्लि को स्त्री तीर्थंकर के रूप में स्वीकार करके यह उद्घोषित किया कि आध्यात्मिक विकास के सर्वोच्च पद की अधिकारी नारी भी हो सकती है । स्त्री तीर्थंकर की अवधारणा जैनधर्म की अपनी एक विशिष्ट अवधारणा है, जो नारी की गरिमा को महिमामण्डित करती है। यद्यपि हिन्दू धर्म में शक्ति के रूप में स्त्री को महत्व दिया गया है; किन्तु जैनधर्म में तीर्थंकर की जो अवधारणा है, उसकी अपनी एक विशेषता है। वह यह सूचित करती है कि विश्व का सर्वोच्च गरिमामय पद पुरुष और स्त्री दोनों ही समान रूप से प्राप्त कर सकते हैं। यद्यपि परवर्ती आगमों एवं आगमिक व्याख्या साहित्य में इसे एक आश्चर्यजनक घटना प्राधान्य को स्थापित करने का प्रयत्न अवश्य किया गया (स्थानांग १०/१६०) । यद्यपि आगमिक व्याख्याओं के काल में पुरुष की महत्ता बढ़ी और व्रत ज्येष्ठ कल्प को पुरुष ज्येष्ठकल्प के रूप में व्याख्यायित किया गया । अंग आगमों में मुझे एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिला जिसमें साध्वी अपनी प्रतिनी, आचार्य या तीर्थंकर के अतिरिक्त दीक्षा में कनिष्ठ भिक्ष को वन्दन या नमस्कार करती हो, किन्तु परवर्ती आगम एवं आगमिक व्याख्या साहित्य में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सौ वर्ष की दीक्षित साध्वी के लिए भी सहाः दीक्षित मुनि वन्दनीय है (बृहत्कल्पभाष्य भाग ६ गाथा ६३९६ एवं कल्पसूत्र कल्पलता टीका)।
फिर भी जैनधर्म संघ में नारी की महत्ता को यथासम्भव सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया गया है। मथुरा में उपलब्ध अभिलेखों से यह स्पष्ट होता है कि धर्मकार्यों में पुरुषों के समान नारियाँ भी समान रूप से भाग लेती थीं। वे न केवल पुरुषों ने समान पूजा, उपासना कर सकती थीं, अपितु वे स्वेच्छानुसार दान भी करती थीं और मन्दिर आदि बनवाने में समान रूप से भागीदार होती थीं। जैन परम्परा में मूर्तियों पर जो प्राचीन अभिलेख उपलब्ध होते हैं उनमें सामान्य रूप से पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों के नाम भी उपलब्ध होते हैं जो इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण हैं । यद्यपि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में कुछ लोग आज भी यह मानते हैं कि स्त्री को जिन-प्रतिमा के पूजन एवं अभिषेक का अधिकार नहीं है।
आगमिक व्याख्याकाल में हम देखते हैं कि यद्यपि संघ के प्रमुख के रूप में आचार्य का पद पुरुषों के अधिकार में था, किसी स्त्री आचार्य का कोई उल्लेख नहीं है, किन्तु गणिनी, प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका आदि पद स्त्रियों को प्रदान किये जाते थे। और वे अपने भिक्षुणी संघ की स्वतन्त्र रूप से आन्तरिक व्यवस्था देखती थीं। यद्यपि तरुणी भिक्ष णियों की सुरक्षा का दायित्व भिक्ष संघ को सौपा गया था किन्तु सामान्यतया भिक्ष णियाँ अपनी सुरक्षा की व्यवस्था स्वयं रखती थीं, क्योंकि रात्रि में एवं पदयात्रा में भिक्षु और भिक्ष णियों का एक ही स्थान पर रहना वजित था। इस सुरक्षा के लिए भिक्ष णी संघ में प्रतिहारी आदि के पद भी निर्मित किये गये थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि साधना के क्षेत्र में स्त्री की गरिमा को यथासम्भव सुरक्षित रखा गया-फिर भी तथ्यों के अवलोकन से यह निश्चित है आगमिक व्याख्याओं के युग में स्त्री की अपेक्षा पुरुष को महत्ता दी जाने लगी थी। नारी की स्वतन्त्रता
नारी की स्वतन्त्रता को लेकर प्रारम्भ में जैनधर्म का दृष्टिकोण उदार था । यौगलिक काल में
१. जैन शिलालेख संग्रह, भाग २ । २. (क) बृहत्कल्पभाष्य, भाग ३, २४११, २४०७; (ख) बृहत्कल्पभाष्य भाग ४, ४३३६ । (ग) व्यवहारसूत्र ५/१-१६ । For Private & Personal Use Only
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