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५. नारी : त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि नारी-सृष्टि की आदि शक्ति है, सकल ऋद्धि-सिद्धि, विद्या की अधिष्ठात्री है । जननी के रूप में वह जीव मात्र के जीवन-धारण की वात्सल्यमयी आधार-शिला है । बहन के रूप में वह स्नेह-सौजन्य-प्रेरणा की प्रवाहिनी है, और पत्नी, भार्या, सहधर्मिणी के रूप में वह मानव के समग्र व्यक्तित्व-विकास की मुख्य धारिका है ।
नारी-वत्सलती, स्नेह, सेवा, प्रेरणा और बलिदान की मूर्ति है, तो तपस्या, त्याग, विद्या और साधना. से सिद्धि तक की सतत प्रवाहशील सुरसरि भी है । उसकी शुभ्र-शीतलता ने संपूर्ण मानवता को शान्ति और शक्ति दी है । नारी ने अपना विराट रूप देखा, पर अनदेखा कर दिया है, इसलिए लक्ष्मी आज दरिद्रा बन रही है, शक्ति आज दीना बन रही है, और प्रभुता स्वयं प्रताड़ित हो रही है । "श्रमणी" रूप में प्रस्तुत यह ग्रन्थ मूलत; त्याग-तपस्या-साधना और शुचिता की मूर्ति नारी-"श्रमणी' का गौरव-ग्रंथ है, अतः नारी के अस्मिता-बोध, गौरव तथा अभ्युत्थान की चर्चा इसमें आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है । विचारशील प्रतिभाओं द्वारा नारी के उदात्त रूप को निखारने वाले विचार-मुक्ता यहां संकलित है, विशिष्ट विद्वानों की अनुसंधानपरक शैली में.........
'सरस'
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