Book Title: Sajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Shashiprabhashreeji
Publisher: Jain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur

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Page 547
________________ भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं में श्रमण परम्परा विवेकप्रधान एवं क्रान्तिधर्मी रही है । उसने सदैव ही विषमतावादी और वर्गवादी अवधारणाओं के स्थान पर समतावादी जीवन मूल्यों को स्थापित जैन आगमिक व्याख्या करने का प्रयास किया। जैन धर्म भी श्रमण परम्परा का ही एक अंग है अतः उसमें भी नर एवं नारी की समता पर बल दिया गया और स्त्री के पुरुष की दासी या भोग्या स्वरूप को नकार कर नारी को साहित्य में नारी की पुरुष के समकक्ष ही माना गया है। फिर भी यह सत्य है कि जैन धर्म और संस्कृति का विकास भी भारतीय संस्कृति के पुरुषप्रधान परि वेश में ही हुआ है, फलतः क्रान्तिधर्मी होते हुए भी वह अपनी सहस्थिति का मूल्यांकन गामी ब्राह्मण परम्परा के व्यापक प्रभाव से अप्रभावित नहीं रह सफी और उसमें भी विभिन्न कालों में नारी की स्थिति में परिवर्तन आये हैं। प्रस्तुत निबन्ध का विषय आगमिक व्याख्या साहित्य के आधार पर जैनाचार्यों की दृष्टि में नारी की स्थिति का मूल्यांकन करना है, किन्तु इसके पूर्व हमें इस साहित्य में उपलब्ध संदर्भो की प्रकृति को समझ लेना आवश्यक है। प्रथम तो यह कि आगमिक व्याख्या साहित्य मुख्यतः आगम ग्रन्थों पर प्राकृत एवं संस्कृत में लिखी गयी टीकाएँ हैं, अतः उनमें अपने युग के सन्दर्भो के साथ आगम युग के सन्दर्भ भी मिल गये हैं । इसके अतिरिक्त इन आगमिक व्याख्याओं में कुछ ऐसे प्रो. सागरमल जैन उल्लेख भी मिलते हैं, जिनका मूल स्रोत, न तो आगमों में और न [अनेक ग्रन्यों के लेखक प्रसिद्ध विद्वानी व्याख्याकारों के समकालीन समाज में, खोजा जा सकता है किन्त वे आगमिक व्याख्याकारों की मनःप्रसूत कल्पना भी नहीं कहे जा निदेशक: सकते हैं। उदाहरण के रूप में मरुदेवी, ब्राह्मी, सुन्दरी तथा पार्श्व नाथ की परम्परा की अनेक साध्वियों से सम्बन्धित विस्तृत विवरण पार्श्वनाथ विद्याश्रम जो आगमिक व्याख्या ग्रन्थों में उपलब्ध है, वे या तो आगमों में शोधसंस्थान, वाराणसी अनुपलब्ध हैं या मात्र संकेत रूप में उपलब्ध हैं, किन्तु हम यह मान सकते हैं कि ये आगमिक व्याख्याकारों की मनःप्रसूत कल्पना है । वस्तुतः वे विलुप्त पूर्व साहित्य के ग्रन्थों से या अनुश्र ति से इन व्याख्याकारों को प्राप्त हुए हैं । अतः आगमिक व्याख्याओं के आधार ' पर नारी का चित्रण करते हुए हम यह नहीं कह सकते कि वे केवल आगमिक व्याख्याओं के युग के सन्दर्भ हैं, अपितु उनमें एक ही साथ विभिन्न कालों के सन्दर्भ उपलब्ध हैं। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से उन्हें निम्न काल खण्डों में विभाजित किया जा सकता है ( ११६ ) _Jain खण्ड/५/१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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