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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन जैन हस्तलिपियों आदि को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यह यात्रा नवयुवक जेकोबी की दिशा निर्धारक बनी । राजस्थान आदि के विभिन्न प्राचीन जैन संस्थानों, जैन साधु-सन्तों एवं विद्वानों से व्यक्तिगत परिचय एवं चर्चा ने जैन धर्म तथा दर्शन को विदेशी होते हुए भी समझने तथा अनुसन्धान करने के क्षेत्र में उनको एक नई दिशा दी।
भारत से लौटने के बाद १८७६ में वे म्यूनस्टर विश्व-विद्यालय में भारतीय साहित्य के प्राचार्य बने । १८८५ में समुद्री किनारे पर बसे उत्तरी जर्मनी के कील शहर में वे आचार्य (प्रोफेसर) बने । १८८६ में वे अपने जन्म स्थल कलोन वापिस लौट आये।
१९१३-१४ में जैकोबी पुनः भारत आये । कलकत्ता विश्व-विद्यालय ने उन्हें काव्य-शास्त्र पर व्याख्यान देने के लिए आमन्त्रित किया एवं डाक्टरेट को मानद उपाधि प्रदान की । अपनी द्वितीय भारत यात्रा के दौरान जेकोबी ने अपभ्रश की दो कृतियों की महत्वपूर्ण खोज की । इससे पूर्व अपभ्रश का ज्ञान व्याकरणाचार्यों के उद्धरणों से ही होता था । “भविस्सदत्त कहा” तथा “सनतकुमारचरितम्" इन दोनों कृतियों का १६१८ तथा १६२१ में प्रकाशन किया।
जैकोबी १६२२ में विश्वविद्यालय की सेवाओं से निवृत्त हुए परन्तु इसके बाद भी अपने जीवन के अन्तिम चरण १६३७ तक वे अपने अनुसन्धान में लगे रहे। जेकोबी ने कई जैन कृतियों का प्रकाशन तथा उनका अनुवाद जर्मन भाषा में किया ।
इनमें से उल्लेखनीय जैन कृतियाँ निम्न हैं :१-दो जैन स्तोत्र २-भद्रबाहु का कल्पसूत्र' भूमिका टिप्पणी तथा प्राकृत-संस्कृत शब्दावलि सहित प्रकाशित ३-कालकाचार्य कथानकम् ४-श्वेताम्बर जैनों का आर्य रंग सुत्त (आचारांग) ५-हेमचन्द्राचार्य की स्थविरावली ६-कल्पसूत्र का अनुवाद' ७-उत्तराध्ययन सूत्र तथा सूत्रकृतांग सूत्र ८--उपमिति भवप्रपञ्च कथा ६-विमलसूरि का पउमचरिय'
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"Proceedings of the Bavarian Academy" में १६१८ तथा १६२१ में प्रकाशित । १८७६ में "Indische Studien" में प्रकाशित ।
लाइपत्सिग में १८७६ में प्रकाशित । ४. Journal of the German Oriental Society (ZDMG) में १८८० में प्रकाशित ।
Pali Text Society द्वारा लन्दन से १८८२ में प्रकाशित । ६. Bibliotheka Indica में १८८३ में प्रथम प्रकाशित तथा १६३२ में पुनः प्रकाशित ।
"Sacred Books of the East" १८८४ में प्रकाशित । इसी में उतराध्ययन सूत्र तथा
सुत्रकतांग सूत्र भी १८६५ में प्रकाशित । ८. १९०१ से १४ तक Bibliotheka Indica में प्रकाशित । ६. १९१४ में प्रकाशित ।
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