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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
अयुक्त की विचारणा होने से धर्म की परीक्षा का निरूपण है । इस उद्देशक में हिंसा और अहिंसा में युक्त क्या है और अयुक्त क्या है ? इसकी परीक्षा की जाय । विभिन्न मतावलम्बियों में जो यह कहते
कि "यज्ञ-यागादि में होने वाली हिंसा दोषयुक्त नहीं” उनको बुलाकर पूछा जाय कि दुःख सुख रूप है या दुःख रूप है ? तो सत्य तथ्य यही वे कहेंगे कि दुःख तो 'दुःख रूप ही है । क्योंकि दुःखार्थी कोई प्राणी नहीं, सभी प्राणी सुखार्थी है । अतः हिंसा अनिष्ट एवं दुःख रूप होने से त्याज्य है और अहिंसा इष्ट एवं सुखरूप होने से ग्रहण करने योग्य - उपादेय है । इसी के साथ आस्रव और परिस्रव की परीक्षा के लिए आस्रव में पड़े हुए ज्ञानीजन कैसे परिस्रव (निर्जरा धर्म) में प्रवृत्त हो जाते हैं । तथा परिस्रव (धर्म) का अवसर प्राप्त होने पर भी अज्ञानी जन कैसे आस्रव में फँसे रहते हैं ? इस प्रकार आस्रवमग्न जनों को विभिन्न दुःखों का स्पर्श होता है । फलस्वरूप प्रगाढ़ वेदना होती है । इसमें ज्ञानी और अज्ञानियों की गतिविधियों एवं अनुभव के आधार पर धर्मपरीक्षा की है ।
तीसरे उद्दे शक में निर्दोष अनवद्य तप से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है न कि बाल- अज्ञान तप से, विश्लेषण किया है । तपस्वी कौन है ? उनके गुण एवं प्रकृति तथा वे किस प्रकार तपश्चर्या कर कर्मक्षय करते हैं उसका विधान किया गया है । जो अहिंसक हैं, वे ज्ञानी हैं। उनकी वृत्तियों का निरीक्षण करें तो ज्ञात होगा कि वे धर्म के विशेषज्ञ होने के साथ सरल व अनासक्त हैं । वे कषायों को भस्मी - भूत कर कर्मों का क्षय करते हैं । ऐसा सम्यग्दृष्टि कहते हैं, क्योंकि “दुःख कर्मजनित हैं" वे इसे भलीभाँति जानते हैं । अतः कर्म-स्वरूप जानकर उसका त्याग करने का उपदेश देते हैं । जो अरिहन्त की आज्ञा के आकांक्षी, निस्पृही, बुद्धिमान पुरुष हैं, वे सर्वात्मदर्शन करके देहासक्ति छोड़ देते हैं । जिस प्रकार जीर्णकाष्ठ को अग्नि शीघ्र जला देती है, उसी प्रकार समाहित आत्म वाले वीर पुरुष कषाय रूपी कर्म शरीर को तपश्चर्या द्वारा शीघ्र जला देते हैं ।
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चतुर्थ उद्दे शक में संक्षेप में चारित्र का निरूपण किया है। संयत जीवन कैसा ? जो पूर्व सम्बन्धों का त्याग कर विषयासक्ति छोड़ देता है । इस प्रकार पुनर्जन्म को अवरुद्ध क दिया है जिन्होंने ऐसे वीर पुरुषों का यह संयम मार्ग दुरूह है । स्थिर मन वाला ब्रह्मचर्य से युक्त ऐसा वीर पुरुष संयम में रत, सावधान, अप्रमत्त तथा तप द्वारा शरीर को कृश करके कर्मक्षय करने में प्रयत्नशील होता है । जो विषयभोगों में लिप्त हैं, उन्हें जानना चाहिए कि मृत्यु अवश्यंभावी है । जो इच्छाओं के वशीभूत हैं, असंयमी हैं और परिग्रह में गृद्ध हैं, वे ही पुनः जन्म लेते हैं । जो पापकर्मों से निवृत्त हैं, वे ही वस्तुतः वासनारहित हैं । भोगेषणारहित पुरुष की निन्द्य प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? जो समितियों से समित, ज्ञान सहित, संयत, शुभाशुभदर्शी हैं, ऐसे ज्ञानियों की क्या उपाधि हो सकती है ? सम्यद्रष्टा की कोई उपाधि नहीं होती, ऐसा ज्ञानी पुरुष कहते हैं ।
इन चारों उद्दे शकों में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्तप और सम्यक्चारित्र का क्रमशः उल्लेख किया है। श्रद्धा अर्थ का कहीं उल्लेख नहीं है । इन चारों ही उद्दे शकों पर दृष्टिपात करें तो सम्यक्त्व यहाँ सम्यक्आचरण से ही अभिप्रेत है । अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, काम-वासना रहित अनासक्ति आदि से युक्त है, तदनुसार ही उसका आचरण है, उसे सम्यक्त्व हो सकता है । ज्ञान मात्र अपेक्षित नहीं, वरन् यहाँ आचरण ही प्रधान बताया है। जो सम्यकत्वी / सम्यग्दृष्टि है उसके कार्य कैसे होते हैं, उसका उल्लेख करते हुए को जानकर पाप कर्म नहीं करता । कहा है कि तत्ववेत्ता मुनि कल्याणकारी मोक्षमार्ग
उक्त कथन से स्पष्ट है कि आचरण की विशुद्धता सम्यक्त्व पर आधारित है । सम्यक् आचरण से युक्त जीवन ही चरम लक्ष्य की ओर कदम बढ़ा सकता है । क्योंकि कहा भी है कि जो वीर सम्यक्त्वदर्शी / सम्यग्दृष्टि मुनि है वही संसार को तिरता है ।
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