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खरतरगच्छ के तीर्थं व जिनालय : श्री भंवरलाल नाहटा
शिखरजी पर यात्री संघ सैकड़ों वर्षों से
आता रहा है जिसमें खरतरगच्छ के जैनाचार्य श्रीजिन सूरज के पधारने का विवरण प्राचीन है और भी अनेक संघ आये। यह पहाड़ सम्राट अकबर द्वारा विजयसूरिजी को दिए गए फरमानों से श्वेताम्बर समाज के अधिकार में रहा है । बाद में जगत सेठजी को भी फरमान मिले । उनकी माता माणक देवी के संघ का विशद वर्णन मिलता है ।
पहले संघ पालगंज आकर गिरिराज पर जाता था । पालगंज राजा के संरक्षक साथ रहते थे । वहाँ जैनमन्दिर भी श्वेताम्बर - दिगम्बर संप्रदाय का संयुक्त बना हुआ है । जब पहाड़ को रायबद्रीदास बहादुर और मोतीचंदजी नरवत आदि के प्रयत्नों से आनंदजी कल्याणजी की पेढी ने क्रय कर लिया तब से श्वेताम्बर समाज की ही संपत्ति रही है। जमींदारी उन्मूलन द्वारा अधिकांश भूमि सरकार ने अधिगृहीत कर ली है ।
मधुवन
श्वेताम्बर कोठी में बहुत से मन्दिर हैं जिनमें कलकत्ता, अजीमगंज, बीकानेर, मिर्जापुर आदि के संघ द्वारा निर्मापित मन्दिर है । कोठी के सामने तथा पृष्ठ भाग में दादावाड़ी बनी हुई है । विशाल धर्मशाला के मध्य जिनालयों का समूह है । धर्मशाला के बाहर श्री भोमियाजी महाराज का अतिप्राचीन कलापूर्ण मन्दिर है । श्वेताम्बर यात्रीगण सदा से भोमियाजी महाराज के दर्शन करके ही गिरिराज की यात्रा प्रारंभ करते थे। आज भी भोमियाजी महाराज की भक्ति में श्वेताम्बर समाज अग्रगण्य है । अब धर्म मंगल विद्यापीठ में मन्दिर एवं छात्रावास आदि इमारतें हो गई हैं । भोमियाजी भवन में भी मंदिर व भोजनशाला आदि निर्माणाधीन है । लगभग एकसौ दस वर्ष पर्यन्त to का ही बट दूगड़ परिवार के हस्तगत रहा । अब संघ के ट्रस्टी चुने जाकर व्यवस्था करते हैं । दूगड़ जी से पूर्व पूरणचन्द्रजी गोलेछा तथा जगतसेठ के परिवार के साथ मुर्शिदाबाद का संघ व्यवस्था करता था । तीर्थ को बचाने में श्रीमणिसागरजी महाराज ने श्री गुलाबचंद जी ढढा आदि के साथ आकर ७५ वर्ष पूर्व अनुष्ठान द्वारा सफलता प्राप्त की थी । खरतरगच्छ के अनेक आचार्य, उपाध्याय, एवं यति मुनियों द्वारा तीर्थ सेवा में प्रशंसनीय योगदान किया था ।
कलकत्ता - यों तो बंगाल का मुख्य धर्म ही जैनधर्म था । उसके बाद बौद्ध, वैष्णव आदि आये हैं । बंगाल के पुराने अनेक स्थानों में खण्डित अखंडित जैन प्रतिमाएँ व भग्नावशेष जैनमन्दिर पाये जाते हैं पर बंगाल में आकर बसे हुए जैनों का इतिहास मुगल काल व ब्रिटिश शासन के साथ-साथ कलकत्ता के विकास का इतिहास है ।
कलकत्ता में सं० १८७१ माघ सुदी १० को स्वतन्त्र पंचायती मन्दिर का निर्माण होकर खरतर गच्छ नायक श्री जिनहर्षसूरि जी द्वारा प्रतिष्ठित हुआ था । इतः पूर्व दादावाड़ी (माणिकतल्ला ) का निर्माण होकर १ स्थूलभद्र स्वामी २ दादा जिनदत्तसूरि ३ दादा मणिधारी जिनचन्द्रसूरि ४ दादा जिनकुशल सूरिजी तथा ५ जिनभद्रसूरिजी के चरण प्रतिष्ठित हुए थे । दादावाड़ी के परिसर में राय बद्रीदास जी के बगीचे में शीतलनाथ स्वामी का विश्वविश्रुत जिनालय है जहाँ देश-विदेश के दर्शनार्थियों का मेला लगा रहता है । सं० १९२४ में यह निर्मित प्रतिष्ठित हुआ था ।
श्री महावीर स्वामी का जिनालय सं० १९३६ में बड़ा संगीन और विशाल बना हुआ है। श्री चन्दाप्रभु जी मन्दिर सं० १९५२ में श्री कपूरचन्द जी खारड़ ने बनवाकर श्री जिनरत्नसूरि जी द्वारा प्रतिष्ठित कराया था ।
आदिनाथ जिनालय - कुमारसिंह हाल (४६ इण्डियन मीटरस्ट्रीट) में सन् १९१६ प्रतिष्ठित है ।
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