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४. धर्म, दर्शन और अध्यात्म-चिन्तन कहते हैं-धर्म की उत्पत्ति सरल हृदय में आचरण की संगति से होती है, तो दर्शन की उत्पत्ति मस्तिष्क में तर्क और चिन्तन के मिलन से । धर्म मनुष्य की श्रद्धा और क्रिया का विषय है, दर्शन प्रज्ञा, और मनन का । धर्म और दर्शन-दो भिन्न छोर प्रतीत होते हैं किन्तु पूरब-और पश्चिम की भांति इनको मिलन-रेखा एक ही है । जिस रेखा पर पूरब का अन्तिम छोर है उसी रेखा से पश्चिम का प्रथम चरण प्रारम्भ होता है और इन दोनों को मिलन-रेखा का नाम है- अध्यात्म ।
अध्यात्म में धर्म भी समाहित है और दर्शन भी । सस्कृति और साधना, कला और कर्तव्य-बोध सभी कुछ अध्यात्म के विशाल तट पर मिल जाते हैं । प्रस्तुत खंड में धर्म, दर्शन, अध्यात्म, कला, कर्तव्यबोध, आदि सब कुछ समाहित हैं और यही तो उसकी परिपूर्णता है ।। जिस प्रकार शरीर के सातों अंग मिलकर हाथी को परिपूर्णता देते हैं, उसी प्रकार धर्म, दर्शन, कला, संस्कृति, कर्तव्य, बोध, साहित्य और साधना, यह सब कुछ मिलकर अध्यात्म को परिपूर्ण रूप प्रदान करते
प्रस्तुत खंड में इन्हीं विषयों पर विशेषज्ञ विद्वानो द्वारा प्रस्तुत विचार-चिन्तन हमें धर्म, दर्शन और अध्यात्म का सम्यक स्वरूप बोध करायेगा ।
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