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जैन दर्शन और योग दर्शन में कर्म सिद्धान्त : रत्नलाल जैन
कषाय – राग और द्वेष
उमास्वाति कहते हैं-" कषाय भाव के कारण जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, वह बन्ध कहलाता है ।"
आत्मा में राग या द्वेष भावों का उद्दीप्त होना ही कषाय है । राग और द्व ेष - दोनों कर्म के बीज हैं । जैसे दीपक अपनी ऊष्मा से बत्ती के द्वारा तेल को आकर्षित कर उसे अपने शरीर (लो) के रूप में बदल लेता है, वैसे ही यह आत्मा रूपी दीपक अपने रागभावरूपी ऊष्मा के कारण क्रियाओं रूपी बत्ती के द्वारा कर्म-परमाणुओं रूपी तेल को आकर्षित कर उसे अपने कर्म शरीररूपी लौ में बदल देता है ।
राग-क्लेश - सुख भोगने की इच्छा राग है-जीव को जब कभी जिस-जिस किसी अनुकूल पदार्थ में सुख की प्रतीति हुई है या होती है, उसमें और उसके निमित्तों में उसकी आसक्ति-प्रीति हो जाती है, उसी को राग कहते हैं । वाचकवर्य श्री उमास्वाति कहते हैं- इच्छा, मूर्च्छा, काम, स्नेह, गृद्धता, ममता, अभिनन्द - प्रसन्नता और अभिलाषा आदि अनेक राग भाव के पर्यायवाची शब्द हैं ।
द्वेष-क्लेश - पातंजल योग-दर्शन में लिखा है कि दुःख के अनुभव के पीछे जो घृणा की वासना चित्त में रहती है, उसे द्वेष कहते हैं । जिन वस्तुओं अथवा साधनों से दुःख प्रतीत हो, उनसे जो घृणा या क्रोध हो, उनके जो संस्कार चित्त में पड़े हों उसे द्व ेष -- क्लेश कहते हैं ।
प्रशमरति में लिखा है- "ईर्ष्या, रोष, द्वेष, दोष, परिवाद, मत्सर, असूया, वैर, प्रचण्डन आदि शब्द द्वेषभाव के पर्यायवाची शब्द हैं। प्रमाद, अस्मिता और अभिनिवेश का समावेश भी राग-द्वेष में हो जाता है।
चार कषाय के बावन नाम
कषाय चार हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ । समवायांग - ५२ में चार कषाय रूप मोह के ५२ नाम कहे गए हैं - जिन में क्रोध के दस, मान के ग्यारह, माया के सत्रह, और लोभ के चौदह नाम बताए गए हैं जो इस प्रकार हैं
क्रोध - १. क्रोध, २. कोप, ३. रोष, ४. दोष, ५. अक्षमा, ६. संज्वलन, ७. कलह, ८. चांडिक्य, ६. भंडण और १०. विवाद ।
मान - १. मान, २. मद, ३. दर्प, ४. स्तम्भ, ५. आत्मोत्कर्ष, ६. गर्व, ७. पर-परिवाद, ८. आक्रोश, C. अपकर्ष, १० उन्नत और ११. उन्नाम
माया - १. माया, २. उपाधि, ३. निकृति, ४. वलय, ५. ग्रहण, ६. न्यवम, ७. कल्क, ८. कुरूक, ६. दम्भ, १०. कूट, ११. वक्रता, १२. किल्विष, १३. अनादरता, १४. गूहनता, १५. वंचनता, १६. परिकुञ्चनता, १७. सातियोग |
लोभ - १. लोभ, २. इच्छा, ३. मूर्च्छा, ४. कांक्षा, ५. गृद्धि, ६. तृष्णा, ७. भिध्या, ८. अभिध्या, ६. कामाशा. १०. भोगाशा, ११. जीविताशा, १२. मरणाशा, १३. नन्दी और १४. राग ।
आस्रव और कर्माशय - आस्रव काय, वचन और मन की क्रिया योग है । वही कर्म का सम्बन्ध कराने वाला होने के कारण आस्रव कहलाता है ।
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