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प्रवर्तन सिंह श्रीजी के साध्वी समुदाय का परिचय : साध्वी हेमप्रभाश्रीजी
दस्युदल नजदीक आता जा रहा था। पर यह समूह बेखबर ध्यान लीन था। एक ही संकल्प था कि उपसर्ग होगा तो मृत्यु का वरण करेंगे। उपद्रव शान्त हो जायगा तो संयम की साधना करते हुए शासन प्रभावना करेंगे । किन्तु यह क्या ? साध्वी - मंडल के नजदीक आकार डाकू दल अन्धों की तरह भ्रमित हो गया। आगे की राह ही नहीं सूझ पाई । आखिर दिशा बदलनी पड़ी। पुनः वही नीरवता छा गयी । साध्वीमंडल ने आँख सोलीं, सुदूर सुदूर क्षितिज पर लौटते हुए डाकुओं की धूल उड़ती दिखाई दी । संयमशील की विजय से आर्या-मण्डल की आँखें चमक उठीं और वे वीरांगनाएँ पुन नमस्कार मन्त्र का ध्यान करती हुई अपनी राह पर चल पड़ीं ।
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ध्यानावस्था में कभी-कभी आपको भावी घटनाओं का पूर्वाभास हो जाता था । आपने कई घटनाओं का पहिले से संकेत किया था और वे सत्य निकली थीं । आपने अपनी मृत्यु का भी ३ माह पूर्व संकेत दे दिया था । जंघाबल क्षीण होने की स्थिति में आप १५ साल फलोदी में स्थानापन्न रहीं ।
वि० सं० २०१० की भादवा शु० १५ को अनिच्छा से आपको प्रवर्तिनी पद से विभूषित किया गया। अपने पूर्व संकेतानुसार आ० कृ० १३ को मानो वस्त्र परिवर्तन कर रही हों, इस तरह पूर्ण तैयारीपूर्वक हँसते-हँसते मृत्यु का वरण किया। आपने गच्छ व शासन को १७ विदुषी, विशुद्धसंयमी, शासनप्रभाविका, प्रखर व्याख्यात्री शिष्याओं की अपूर्व भेंट दी। जिनके द्वारा की गई शासन सेवा एवं वर्तमान में २५ प्रशिष्याओं द्वारा हो रही शासनसेवा के लिये गच्छ को बड़ा गौरव है । आपके यशश्रीजी म., शान्तिश्रीजी म., क्षमाश्रीजी म०, अनुभव श्रीजी म०, शुभश्रीजी म०, तेजश्रीजी म० आदि अनेक शिष्याये हुईं। वर्तमान में साध्वीश्री विनोद श्रीजी म०, प्रियदर्शनाश्रीजी म०, विकासश्रीजी म०, हेमप्रभाश्रीजी, सुलोचनाश्रीजी म० आदि विचरण कर रहे हैं ।
प. पू. सौजन्यमूर्ति ज्ञानश्रीजी म. सा.
आप लोहावट निवासी पारख गोत्रीय मुकनचन्दजी एवं कस्तूरदेवी की सुपुत्री थीं । आपका जन्म वि० सं० १६२८ की श्रावण शुक्ला ३ को हुआ था। आपका नाम जड़ाव था । वास्तव में आपका जीवन सुसंस्कार एवं सद्गुणों से जड़ा हुआ था। आपका विवाह ! लोहावट में ही लक्ष्मीचन्द जी सा० चोपड़ा के साथ हुआ। किंतु काल ने १२ वर्ष की अल्प अवधि में ही संस्कारी युगल को वियुक्त कर दिया । जड़ावबाई विधवा हो गई। जिस हृदय में वास्तव में धर्मं रमा है, वहाँ कर्म आते तो हैं किंतु प्रभाव नहीं जमा सकते । दुख आता है किंतु विकल नहीं कर सकता । प्रत्युत प्रेरक बनता है । बाई का भी यही हाल था । पतिवियोग की व्यथा उनकी आत्मोन्नति में प्रेरक बनी। इसे सफल बनाने का काम किया पू. श्रीसिंह श्रीजी म० के सदुपदेशों ने । ५ वर्ष के अथक प्रयास से आखिर सफलता मिली और वि० सं० १६६१ की मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी के दिन दीक्षा ग्रहण की। ज्ञानश्रीजी के नाम से प्रसिद्ध हुईं । बड़ी उम्र में दीक्षा लेकर भी आपकी पढ़ने की रुचि अद्वितीय थी । यही कारण है कि आपने बड़ी उम्र में अच्छा अध्ययन किया । आपकी ज्ञानरुचि ने ही लोहावट फलोदी आदि में कन्या पाठशाला खुलवाई। आपके उपदेश से खीचन, जैसलमेर का संघ निकला । बल्लभश्री श्री जी म. जैसी महान् साध्वी रत्न आपकी ही देन है । धर्मशालाओं का निर्माण हुआ । १६६६ वै० सु० १३ को फलोदी में आप समाधिपूर्वक दिवंगत हुईं । आप १३ सुयोग्य शिष्याओं की गुरुणी थीं । प. पू. शासन दीपिका मनोहर श्रीजी म० सा० आपकी ही प्रशिष्या है ।
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