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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
अजीमगंज-मुर्शिदाबाद से भी अनेकशः संघ निकले। सम्मेतशिखरजी आदि पूर्व देश के तीर्थों के संघ निकलते ही रहते थे । शत्रुञ्जय पर खरतरगच्छ संघ द्वारा अनेक मन्दिरादि बने तथा तलहटी के विशाल धनवसही मन्दिर भी स्वनामधन्य श्रीमोहनलालजी महाराज के हाथ से प्रतिष्ठित हैं ।
श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज अनेक बार कचरा कीका आदि के संघसह सिद्धावतजी पधारे और उनके उपदेश से अनेक मन्दिरों का जीर्णोद्धार हुआ जिनके अनेक शिलालेख मिलते हैं। उनके गुरु श्रीदीपचन्दजी ने भी वहाँ प्रतिष्ठाएँ कराई थीं। श्री आनन्दजी कल्याणजी की पेढी की स्थापना और शत्रुञ्जय पर कौओं का आना बन्द किया। नगर के बीच यतिजी का वंडा और दादावाड़ी आदि हैं। पहले खरतरवसही आदि के जीर्णोद्धार वहीवट खरतरगच्छ संघ के अधीन था और यतिजी की पूरी सेवाएँ थीं बाद में अब तो सब कुछ शेष हो गया।
जैसलमेर तीर्थ तो प्रारम्भ से ही खरतरगच्छ के कीर्तिकलाप से मण्डित है। इसके बसने के पूर्व लौद्रनपुर राजधानी थी, वहाँ के राजवंश को प्रतिबोध देकर महान् गुरुओं ने भणशाली गोत्रादि प्रतिबोध दिये थे । यहाँ किले के सभी मन्दिर अद्भुत कलाधाम हैं जो खरतरगच्छानुयायियों द्वारा निर्मापित
और प्रतिष्ठित हैं। जैसलमेर का सर्वप्रथम पार्श्वनाथ जिनालय सेठ जगद्धर का बनवाया हुआ था। इनके पूर्वज आषाढ सेठ बड़े धर्मात्मा थे जो पहले महेश्वर धर्म को मानने वाले थे। इन्होंने व्यास की दुष्टता रखकर माहेश्वरत्व छोड़कर उपके शपुर में आर्हत्धर्म स्वीकार कर लिया, उनका पुत्र जामुणाग और उसका पुत्र बोहित्थ था। इन्हों से बोथरा वंश प्रसिद्ध हुआ। बोहित्थ के पद्मदेव और वोल्ह नामक पुत्र थे। पद्मदेव ने नागौर के पास कुडलू गाँव में जिनालय निर्माण कराया। उनके पुत्र सुप्रसिद्ध सेठ क्षेमंधर हुए जिन्होंने मणिधारीजी से विधिमार्ग स्वीकार किया और सं० १२१८ में वैशाख सुदी १० को मरुकोट में धर्कटवंशीय सेठ पार्श्वनागपुत्र गोल्लक के निर्मापित चन्द्रप्रभ जिनालय में ध्वजा दण्डकलशारोहण के समय पाँच सौ द्रम देकर माला ग्रहण की। उस समय राजा सिंहबल का राज्य था । सेठ क्षेमंधर के दो पुत्र महेन्द्र और प्रद्युम्न इतः पूर्व चैत्यवासी परम्परा में दीक्षित हो चुके थे। अजयपुर के विधिचैत्य के मण्डप निर्माण हेतु सोलह हजार रुपये प्रदान किये तथा हजारों पारुत्थक व्यय कर अपने कुल के श्रेयार्थ तीर्थयात्राएँ की। सं० १२४४ में अपने पुत्र प्रद्य म्नाचार्य को प्रतिबोध देने, सुविहित मार्ग में लाने के लिए आशापल्ली में श्रीजिनपतिसूरिजी से शास्त्रार्थ कराया था।
सेठ क्षेमंधर के यशोदेवी और हंसिनी नामक दो भार्याएँ थीं। यशोदेवी के पुत्र जगद्धर ने ही जेसलमेर में देव विमान तुल्य पार्श्वनाथ जिनालय का निर्माण कराया। इसी मन्दिर को सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के समय यवन राज्य में तोड़-फोड़ डाला गया। जगद्धर की स्त्री साढलही के पुत्र यशोधवल, भुवनपाल और सहदेव थे। यशोधवल प्रतिदिन देशान्तर से आये हुए श्रावकों की भोजनादि से भक्ति करते। भुवनपाल छः मास भूमिशयन, एकाशन, स्नान-त्याग, षडावश्यक, नवकार जाप और ब्रह्मचर्य पालक थे। सं० १२८८ में आश्विन सुदी १० को पालनपुर में श्री जिनपतिसूरि स्तूपरत्न पर ध्वजारोपण किया। श्री भीमपल्लीतीर्थ में सौध शिखरी प्रासाद निर्माण किराया सं० १३१७ में जिनेश्वरसूरिजी द्वारा महावीर स्वामी प्रतिष्ठित कराये । इनकी पत्नी पुण्यिनी के त्रिभुवनपाल व घीदा पुत्र हुए। उनके पुत्र क्षेमसिंह और अभयचन्द्र हुए। श्री जिनेश्वरसूरिजी की संघ यात्रा में सेनापति बने थे। सेठ जगद्धर ने श्रीमाल नगर में समोशरण प्रतिष्ठा की और शान्तिनाथ स्वामी स्थापित किये। जैसलमेर का मुख्य जिनालय रांका सेठ आम्बा द्वारा निर्मापित है। आम्बा ने सं० १४२५ में विस्तार से देरावर तीर्थयात्रा खण्ड ३/१२
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