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D हजारीमल बांठिया, कानपुर
खरतरगच्छ की गौरवमयी परम्परा
यदि खरतरगच्छ के संस्थापक पूर्वाचार्यों ने चैत्यवास पर चोट नहीं की होती तो, यह निश्चित था कि जैनधर्म भी, बुद्धधर्म की तरह भारत की धरती से लुप्त हो जाता । चैत्यवासी परम्परा ने भगवान् महावीर के सिद्धान्तों को तिलांजलि देकर सुविधाधर्म बन लिया था । अपने तन्त्र-मन्त्र-विद्या के सहारे तत्कालीन राजाओं व मन्त्रियों पर अपना अक्षण्ण प्रभाव जमा लिया था । खरतरगच्छ के आदि संस्थापक आचार्य वर्द्धमान सूरि और उनके शिष्य जिनेश्वर सूरि से लेकर जिनपतिसूरि इतने दिग्गज विद्वान हुए जिन्होंने राज-सभाओं में शास्त्रार्थं कर चैत्यवासियों पर विजय प्राप्त की । स्वनामधन्य विद्वान स्व० अगरचन्दजी नाहटा ने ठीक ही लिखा है
"पाँच सौ- सात सौ वर्षों से जो चैत्यवास ने श्वेताम्बर सम्प्रदाय में अपना इतना प्रभाव विस्तार कर लिया था, वह जिनेश्वरसूरि से लेकर जिनपतिसूरि जी तक के आचार्यों के जबरदस्त प्रभाव से क्षीणप्राय हो गया ।" अतः सुविहित मार्ग की परम्परा को पुनः प्रतिष्ठित और चालू रखने में " खरतरगच्छ ' की महान देन है । प्राचीन जैन साहित्य - इतिहास - पुरातत्व जो भी वर्तमान में उपलब्ध हैं उसका पचास प्रतिशत भाग खरतरगच्छ के जैन मुनियों, श्रावकों आदि ने रचित किया है । पुरातत्वाचार्य स्व० मुनि जिनविजयजी तो खरतरगच्छ के साहित्य से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने निष्पक्ष भाव और मुक्त हृदय से लिखा है
"खरतरगच्छ में अनेक बड़े-बड़े आचार्य, बड़े-बड़े विद्यानिधि उपाध्याय, बड़े-बड़े प्रतिभाशाली पंडित मुनि और बड़े-बड़े मांत्रिक, तांत्रिक, ज्योतिर्विद्, वैद्यक विशारद आदि कर्मठ यतिजन हुए जिन्होंने अपने समाज की उन्नति, प्रगति और प्रतिष्ठा के बढ़ाने में बड़ा योग दिया है । सामाजिक और साम्प्रदायिक उत्कर्ष के सिवाय खरतरगच्छ अनुयायियों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं देश भाषा के साहित्य को भी समृद्ध करने में असाधारण उद्यम किया और इसके फलस्वरूप आज हमें भाषा, साहित्य, इतिहास दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक आदि विविध विषयों का निरूपण करने वाली छोटी-बड़ी सैकड़ों हजारों पुस्तकें और ग्रन्थ आदि कृतियाँ जैन भंडारों में उपलब्ध हो रही हैं। खरतरगच्छीय विद्वानों द्वारा की हुई यह उपासना न केवल जैन धर्म की दृष्टि से ही महत्व वाली है, अपितु सम्मुच्चय भारतीय संस्कृति के गौरव की दृष्टि से भी उतनी ही महत्ता रखती है ।
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"साहित्योपासना की दृष्टि से खरतरगच्छ के विद्वान यति मुनि बड़े उदारचेता मालूम देते हैं । इस विषय में उनकी उपासना का क्षेत्र, केवल अपने धर्म या सम्प्रदाय की बाड़ से बद्ध नहीं है । वे जैन और जैनेतर वाङ् मय का समान भाव से अध्ययन-अध्यापन करते रहे हैं । व्याकरण, काव्य, कोष, छन्द, अलंकार, नाटक, ज्योतिष, वैद्यक और दर्शनशास्त्र तक के अगणित अजैन ग्रन्थों पर उन्होंने अपनी
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