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खरतरगच्छ की संविग्न साधु का परम्परा परिचय : मंजुल विनयसागर जैन
(३) जिनरत्नसूरि आपका जन्म संवत् १९३८ में लायजा में हुआ था। जन्म नाम देवजी था । बाल्यावस्था में ही बम्बई आकर अपने पिता की दुकान में सहयोगी बनकर काम कर रहे थे । इधर बम्बई में मोहनलालजी महाराज का चातुर्मास होने से देवजी भाई अपने मित्र लधाभाई के साथ प्रतिदिन व्याख्यान सुनने के लिए जाते थे । प्रतिबोध पाकर दोनों ने दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा प्रकट की। मोहनलालजी महाराज ने इन दोनों को राजमुनिजी के पास रेवदर भेज दिया । राजमुनिजी ने इन दोनों को संवत् १९५८ चैत्र वदी तीज को भागवती दीक्षा दी । देवजी भाई का नाम रत्नमुनि रखा और लधाभाई का नाम लब्धिमुनि रखा। यशमनिजी के पास में इन्होंने योगोदवहन किया और गणि पद को प्राप्त किया। जिनऋद्धिसरिजी ने संवत् १९९७ में बम्बई में आपको आचार्य पद प्रदान कर जिनरत्नसूरि नाम रखा।
आप बड़े धीर प्रकृति के श्रमण थे, संयममार्ग में दृढ़ थे और आपने राजस्थान, मालवा, गुजरात, कच्छ, महाराष्ट्र आदि अनेक स्थानों पर भ्रमण कर कई विशिष्ट धार्मिक कार्य सम्पन्न करवाये । आपके वरदाहस्तों से अनेक जिनमन्दिरों की प्रतिष्ठाएँ हुईं, अंजनशलाकाएँ हुई', उपधान तप हुए । कई स्थानों पर नवीन दादाबाड़ियाँ निर्माण करवाई । कई दादाबाड़ियों के जीर्णोद्धार करवाये । अनेक स्थलों पर गुरुदेव के चरणों की प्रतिष्ठा करवाई और अनेक उपाश्रयों का जीर्णोद्धार करवाया।
आपने कई भव्य आत्माओं को संयमपथ पर आरूढ़ किया था । गणि श्री प्रेममूनिजी, मूक्तिमुनिजी, भद्रमुनिजी आदि प्रमुख शिष्य थे । भद्रमुनिजी ही आत्मपथिक बनने के पश्चात् योगीराज सहजानन्दजी के नाम से प्रसिद्ध हुए थे । संवत् २०११ माघ सुदी प्रतिपदा को अंजार में आपका स्वर्गवास
हुआ।
___ आपके बचपन के साथी और दीक्षा में भी साथी लब्धिमुनिजी उपाध्याय आशु कवि थे। संस्कृत में इन्होंने कई चरित्र काव्य और कई ग्रन्थ लिखे हैं जिनमें चारों दादाओं के जीवन चरित्र, जिनरत्नसूरि चरित्र, जिनयशःसूरि चरित्र, जिनऋद्धिसूरि चरित्र, द्वादश पर्व कथा, सुसढचरित्र एवं स्तुति स्तोत्रादि प्रमुख है । आपका संवत् २०२३ में आसम्बिया में स्वर्गवास हुआ।
(४) गणिवर्य श्री बुद्धिमुनिजी आपका जन्म जोधपुर क्षेत्र के गंगाणी तीर्थ के निकट बिलारे गाँव में हुआ था । जन्मतः आप चौधरी (जाट) वंश के थे । पंन्यास श्रीकेसरमुनिजी का सुसंयोग मिलने के कारश संवत् १९६३ में ६ वर्ष की अल्प आयु में ही दीक्षा ग्रहण की । जन्म नाम नवल था और आपका दीक्षा नाम हुआ बुद्धिमुनि । सं० १९६५ में जिनरत्नसूरिजी ने आपको गणि पद से विभूषित किया था।
आप उत्कृष्ट साध्वाचार के पालक थे, कठोर नियमों एवं अनुशासन में रहना इनको अधिक प्रिय था। संस्कृत और प्राकृत भाषा के उद्भट विद्वान थे । रात-दिवस साहित्यसाधना में व्यतीत करना ही इनका मुख्य व्यसन था। अनेकों ग्रन्थों का आपने सम्पादन किया था और अनेक चर्चात्मक पुस्तकों का लेखन भी किया था। तपस्वी भी थे । अनेक स्थानों पर जिनमन्दिरों, जिनप्रतिमाओं, गुरुचरणों आदि की प्रतिष्ठाएँ करवाई थीं । कई उद्यापन आपकी अध्यक्षता में हुए थे । अन्तिम अवस्था में आप अत्यधिक रुग्ण रहे तथापि तनिक भी साध्वाचार के नियमों का उल्लंघन नहीं किया और एक मिनट भी व्यर्थ न खोकर छोटे-मोटे ग्रन्थों का संपादन करते रहे । सं० २०१८ श्रावण सुदी अष्टमी को आपका स्वर्गवास हुआ। आपके शिष्यों में मुनि जयानन्दजी म. विद्यमान हैं जो अपने शिष्य मुनि कुशाल मुनि जी के साथ विचरण कर रहे हैं । ये विद्वान व क्रियापात्र मुनि हैं । एक राजेन्द्रमुनि जी (जिनरत्नसूरि शिष्य) भी हैं जो वृद्धावस्था में होने से ठाणापति हैं ।
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