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साध्वी सम्यग्दर्शनाश्रीजी
स्व० आचार्य श्री जिनकवीन्द्रसागर सूरिजी म.सा.
इस अनादिकालीन चतुर्गत्यात्मक संसार कानन में अनन्त प्राणी स्व-स्व-कर्मानुसार विचित्रविचित्र शरीर धारण करके कर्मविपाक को शुभाशुभ रूप से भोगते हुए भ्रमण करते रहते हैं । उनमें से कोई आत्मा किसी महान् पुण्योदय से मानव-शरीर पाकर सद्गुरु संयोग से स्वरूप का भान करके विरक्ति की ओर गमन करते हैं । जन्म-जरा-मरण से छूटकर वास्तविक मुक्ति सुख प्राप्त करने के लिए, तप संयम की साधनापूर्वक स्व-पर-कल्याण साधते हैं। ऐसे ही प्राणियों में से स्वर्गीय आचार्यदेव थे. जिन्होंने बाल्यावस्था से आत्मविकास के पथ पर चलकर मानव-जीवन को कृतार्थ किया।
वंश परिचय व जन्म-आपश्री के पूर्वज सोनीगरा चौहान क्षत्रिय थे और वीर प्रसविनी मरुभूमि के घनाणी ग्राम में निवास करते थे । वि० सं० ६०५ में श्री देवानन्द सूरि से प्रतिबोध पाकर जैन ओसवाल बने और अहिंसाधर्म धारण किया । पूर्व पुरुष जगाजी शाह रानी आकर रहने लगे। रानी से पाटण और फिर व्यापारार्थ इनके वंशज श्रीमलजी वि० १६१६ में लालपुरा चले गये थे। वहाँ भी स्थिति ठीक न होने से इनके वंशज शेषमलजी पालनपुर आये और वही निवास कर लिया। इसी वंश में बेचर भाई के सुपुत्र श्री निहालचन्द्र शाह की धर्मपत्नी श्रीमती बब्बूबाई की रत्नकुक्षि से वि० सं० १९६४ की चैत्र शुक्ला १३ को शुभ स्वप्न सूचित एक दिव्य बालक ने अवतार लिया। पिता-माता के इससे पूर्व कई बालक बाल्यावस्था में ही काल कवलित हो चुके थे। अतः उन्होंने विचार किया कि यह बालक जीवित रहा तो इसे शासन सेवार्थ समर्पित कर देंगे। 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' के अनुसार यह बालक शैशवावस्था से ही तेजस्वी और तीव्र बुद्धि था।
जब हमारे यह दिव्य पुरुष केवल १० वर्ष के ही थे तभी पिता की छत्रछाया उठ गई । और यह प्रसंग इस बालक के लिए वैराग्योद्भव का कारण बना।
शोकग्रस्त माता पुत्र अपनी अनाथ दशा से अत्यन्त दुःखी हो गये । 'दुख में भगवान याद आता है' यह कहावत सही है । कुछ दिन तो शोकाभिभूत हो व्यतीत किये । बालक धनपत ने कहा, माँ मैं दीक्षा लूंगा। मुझे किसी अच्छे गुरुजी को सौंप दें।
माता ने विचार किया अब एक बार बड़ी बहिन के दर्शन करने चलना चाहिए। माताजी की बड़ी बहिन जिनका नाम जीवीबाई था, स्वनामधन्या प्रसिद्ध विदुषी आर्यारत्न पुण्यश्री जी म. सा. के पास दीक्षा लेकर साध्वी बन गई थीं, उनका नाम था दयाश्रीजी म० । वे उस समय रत्नाश्रीजी म. सा. के साथ मारवाड़ में विचरती थीं, वहीं माता पुत्र दर्शनार्थ जा पहुँचे।
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