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क्रान्ति के विविध रूप तथा धार्मिक क्रान्तिकारक दर्शनाचार्य साध्वी शशिप्रभाश्री
सम्पन्न हुई । आपने "श्रावक धर्मविधि" नामक ग्रन्थ की रचना की । आपके पट्टधर जिनप्रबोधसूरि थे । इन्होंने "कातन्त्र व्याकरण" पर "दुर्गपदप्रबोध" नामक वृत्ति का निर्माण किया ।
आपके पट्टाधीश 'कलिकाल केवली विरुदधारक, अनेक राजाओं के प्रतिबोधक कुतुबुद्दीन बादशाह को प्रभावित करने वाले सुविहित नामधेय जिनचन्द्र हुए । इन्होंने कई दीक्षाएँ, प्रतिष्ठाएँ, संघ यात्राएँ आदि धर्मकार्य करवाये । इनके समय के खरतरगच्छ सभी प्रकार से उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर विराजमान था । ये मारवाड़, गुजरात, सिन्धु, पंजाब, सपादलक्ष, मरुस्थल, वागड़ (हरियाणा), दिल्ली, मथुरा, हस्तिनापुर आदि प्रदेशों में विचरे । इनके विषय में श्री जिनकुशलसूरि जो इन्हीं के पट्टधर थे लिखते हैं कि ये..........
द्धिये सरि गोयम स्वाई गुणेहिं वयरसामि गुरु । सीलेण थुलिभद्दो पभावणाए सुहत्थि ||
अर्थात् - वे ( कलिकाल केवली जिनवन्द्रसूरि ) लब्धियों से गौतम स्वामीरूप, विद्वत्ता आदि में स्वामी, शील में स्थूलिभद्र और शासन प्रभावना में आर्य सुहस्ति सुरि ( सम्राट सम्प्रतिराजा के गुरु ) जैसे थे ।
इनका जन्म स्थान समियाणा ( सिवाणा ) गोत्र छाजेड़ था । आठ वर्ष की बाल्यवय में मुनि बने थे । जन्म वि. सं. १३२४, दीक्षा १३३२ और आचार्य पद १३४१ में हुआ था । १६ वर्ष की किशोरावस्था में इतने विद्वान और सर्वगुण युक्त थे कि संघ की सर्वसम्मति से गुरु श्री प्रबोधसूरि ने इन्हें गच्छाधीश बना दिया था । अत्यन्त प्रभावशाली युगप्रधान आचार्य थे। इनके पट्ट पर स्थविराग्रणी आचार्य श्री राजेन्द्रसूरि ने सर्वगुण सम्पन्न कुशलकीर्तिगण को स्थापित किया। वे श्री जिनकुशलसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए । उस समय ७०० मुनिराज एवं २८०० साध्वियाँ खतरगच्छ में आपके आज्ञानुवर्ती थे ।
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इन्हीं के समकालीन महाविद्वान कवि शिरोमणि श्री जिनप्रभसूरि लघु खरतर शाखा में महाप्रभावशाली आचार्य थे । तत्कालीन तुगलक बादशाह फिरोजशाह और मोहम्मदशाह इनके परम भक्त थे । इनके बनाये विविध तीर्थ कल्प, विधिप्रथा तथा सैकड़ों स्तोत्र आज भी समुपलब्ध हैं नित्य अभिनव सुरचित स्तुति से प्रभु की स्तवना करके प्रत्याख्यान पारने की प्रतिज्ञा थी ।
इन्हीं कुशलसूरि ने ५०,००० अजैनों को जैन बनाया था। इनका आचार्यपद पाटण ( अणहिलपुर पट्टन ) में भारी समारोहपूर्वक हुआ था । आपका प्रामाणिक सम्पूर्ण चरित्र नाहटा बन्धुओं द्वारा लिखित सुप्राप्य है । इनका विहार क्षेत्र अधिकतर छोटी मारवाड़ - सिरोही, जालौर, सिवाणा आदि मरुस्थल, जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर आदि प्रदेश तथा सिन्धु देश पंजाब आदि था । जैन दर्शन की भावना करने में भारी समर्थ आचार्य थे। आप आज भी छोटे दादाजी के नाम से प्रसिद्ध हैं। देराउर (सिन्धु प्रदेश ) में इनका स्वर्गवास वि० सं० १३८६ में फागुन कृष्णा ५ का होने का उल्लेख प्राचीन पट्टावलियों में है । किन्तु प्रतिलिपिकारों के द्वारा अज्ञानवश ५ को १५ लिख दिया गया लगता है । और वर्तमान में कई वर्षों से फागुन बिदी अमावस्या ही प्रसिद्ध है । आप विद्वान, साहित्यकार और afa थे | आपकी अनेक कृतियाँ उपलब्ध हैं । उनमें चैत्यवन्दन कुलकवृत्ति, शान्तिनाथ चरित्र ( प्राकृत ) जिनचन्द्र चतुःसप्ततिका, पार्श्वस्तोत्र, यमक अलंकार युक्त आदिनाथ स्तोत्र, फलौदी पार्श्वनाथ स्तोत्र आदि मुख्य हैं । श्री जिनकुशलसूरि के चरण और मूर्तियाँ हजारों ग्राम-नगरों में पूजी जाती हैं । राउर तो पाकिस्तान में रह गया किन्तु मालपुरा में तो आज भी उनका चमत्कारी
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