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खण्डः ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
(१४) महोपाध्याय समतिसागर जी जैसाकि पूर्व में संकेत किया जा चुका है कि गणनायक भगवानसागर जी म. के प्रमुख शिष्य सुमतिसागरजी थे। इनका जन्म सं० १६१८ में नागौर में हुआ था। रेखावत गोत्रीय थे और नाम था सूजाणमल । शादी भी हुई थी। पुत्री भी थी, जिसका भविष्य में विवाह धनराज जी बोथरा के साथ हआ था। पुत्री की पुत्री का विवाह नागौर के ही सरदारमल जी समदड़िया के साथ हुआ था। वैराग्य रंग लग जाने से २६ वर्ष की अवस्था में घर-बार, पत्नी एवं पुत्री का त्याग कर सं० १९४४ वैशाख सूदी ८ के दिन सिरोही में भगवानसागरजी म. के पास दीक्षा ग्रहण कर उनके शिष्य बने । दीक्षावस्था का नाम था-मुनि सुमतिसागर । तत्कालीन गणनायक छगनसागरजी म. का स्वर्गवास होने पर संघ की बागडोर सम्भालने के लिये संघ ने सुमतिसागरजी से निवेदन किया था, किन्तु सुमतिसागरजी ने जो कि उस समय खानदेश में थे, अपने लघु गुरुभ्राता श्री त्रैलोक्यसागरजी को गणनायक बनाने का अनुरोध किया। सम्वत् १९७२ में बम्बई में आचार्य श्री कृपाचन्द्रसूरि ने सुमतिसागरजी को उपाध्याय पद-प्रदान किया था और सम्वत् १९७६ में इन्दौर में सुमतिसागरजी को महोपाध्याय पद से अलंकृत किया था। सम्वत् १९९४ में आपका अचानक हृदय गति रुक जाने से कोटा में ७६ वर्ष की अवस्था में स्वर्गवास हुआ था।
(१५) जिनमणिसागरसरि महोपाध्याय सूमतिसागरजी के प्रमुख शिष्य थे जिनमणिसागरसूरि । सम्वत् १९४३ में वीसा पोरवाल जाति के परिवार में आपका जन्म हुआ था। आपके पिता का नाम था गुलाबचन्दजी और माता का नाम था पानीबाई; जो कि बांकड़िया बडगांव के रहने वाले थे। इनका जन्म नाम था मनजी। सम्बत १९६० में जब मनजी पालीताणा की यात्रा पर गये तो यात्रा करते समय ही इनमें वैराग्यरंग जागृत हआ और १६६० में ही वैशाख सुदी द्वितीया को सिद्धाचल तीर्थ पर ही सुमतिसागरजी के पास दीक्षा ग्रहण की । इनका दीक्षा नाम रखा गया मुनि मणिसागर । सम्वत् १९६४ में मुनि मणिसागरजी ने योगीराज चिदानन्दजी (द्वितीय) लिखित 'आत्मा भ्रमोच्छेदन भानु' नामक पुस्तक जो कि ८० पृष्ठ की थी, उसे विस्तृत कर ३५० पृष्ठों में पूर्ण की और चिदानन्दजी के नाम से ही प्रकाशित की। यह थी आपकी साहित्य निश्छलता और निरभिमानता।
उन्हीं दिनों सम्मेतशिखर महातीर्थ के लिये श्वेताम्बर और दिगम्बर समाज में केस चल रहा था। मणिसागरजी ने सम्मेतशिखर में रहकर एक माह तक कठोर अनुष्ठान किया। फलतः सम्मेतशिखर के केस में श्वेताम्बर समाज को सफलता प्राप्त हुई।
सम्वत् १९६६ में मुनि विद्याविजयजी ने खरतरगच्छ की मान्यताओं पर जब दोषारोपण किया तो मणिसागरजी ने प्रारम्भ में प्रत्युत्तर के रूप में एक छोटी सी पुस्तिका लिखी और उसी का विस्तार रूप 'बहद् पर्यषणा निर्णय' और 'षटकल्याणक निर्णय' था। इन दोनों पुस्तकों ने खरतरगच्छ को मान्यताओं को सबल आधार दिया और शास्त्रानुसार स्थायी रूप दिया।
सम्वत् १९७२ में जब कृपाचन्द्रजी म. को आचार्य पद दिया गया। जिनकृपाचन्द्र सूरि ने उस समय सुमतिसागरजी को उपाध्यायपद और मणिसागरजी को पण्डित पद प्रदान किया। इसी वर्ष बम्बई में तपागच्छ के धुरन्धर विद्वान् श्री सागरानन्दसूरि और श्री बल्लभविजयजी (विजयवल्लभसूरि) आदि ने खरतरगच्छ की मान्यताओं पर आरोप करते हुए कई बुलेटिन निकाले ।
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