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खरतरगच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी शीलोपदेशमाला, षष्टि शतक आदि १७ ग्रन्थों के बालावबोधकार, मेरूसुन्दरोपाध्याय, क्षेमराजोपाध्याय, षष्टिशतक टीकाकार तपोरत्न गणि, पुष्पमाला वृत्तिकार, साधु सोम उपाध्याय, हर्षराज, धर्मदेव, मुनिसोम; लक्ष्मीसेन आदि ।
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(२१) जिनहंससूरि
इनके पश्चात् गच्छनायक श्रीजिन हंससूरिजी हुए । सेत्रावा नामक ग्राम में चोपडा गोत्रीय साह मेघराज इनके पिता और श्री जिनसमुद्रसूरि जी की बहिन कमलादेवी माता थी । संवत् १५२४ में इनका जन्म हुआ था । आपका जन्म नाम धनराज और धर्मरंग दीक्षा का नाम था । संवत् १५३५ में विक्रमपुर में दीक्षा ली थी । संवत् १५५५ में अहमदाबाद नगर में आपकी आचार्य पद पर स्थापना हुई । तदनन्तर संवत् १५५६ ज्येष्ठ सुदी नवमी के दिन रोहणी नक्षत्र में श्रीबीकानेर नगर में बोहिथरा गोत्रीय करमसी मंत्री ने फीरोजी लाख रुपया व्यय करके पुनः आपका पद महोत्सव किया और उसी समय शान्तिसागराचार्य ने आपको सूरिमन्त्र प्रदान किया । वहीं नमिनाथ चैत्य में बिम्बों की प्रतिष्ठा करवाई । तदनन्तर एक बार आगरा निवासी संघवी डूंगरसी, मेघराज, पोमदत्त प्रमुख संघ के आग्रहपूर्वक बुलाने पर आप आगरा नगर आये । उस समय बादशाह के भेजे हुए हाथी, घोड़े, पालकी, बाजे, छत्र, चंवर आदि के आडम्बर से आपका प्रवेशोत्सव कराया गया। जिसमें गुरुभक्ति, संघशक्ति आदि कार्य में दो लाख रुपये खर्च किये थे । चुगलखोरों की सूचना के अनुसार बादशाह ने आपको बुलाकर धवलपुर में रक्षित कर चमत्कार दिखाने को कहा। तब आचार्य ने दैविक शक्ति से बादशाह का मनोरंजन करके पाँच सौ बन्दीजनों (कैदियों) को छुड़वाया और अभय घोषणा कराकर उपाश्रय में पधार आये । तब सारे संघ को बड़ा हर्ष हुआ । तदनन्तर अतिशय सौभाग्यधारी, तीनों नगरों में तीन प्रतिष्ठाकारी तथा अनेक संघपति - प्रमुखपद स्थापक श्रीगुरुदेव पाटन नगर में तीन दिन अनशन करके संवत् १५८२ में स्वर्गवासी हुए । संवत् १५८७ में जिनमाणिक्यसूरि द्वारा प्रतिष्ठित आपके चरण जैसलमेर पार्श्वनाथ जिनालय में विद्यमान हैं ।
(२२) जिनमाणिक्यसूरि
श्री जिनहंससूरिजी ने अपने पट्ट पर श्रीजिनमाणिक्यसूरिजी को स्थापित किया । इनका जन्म संवत् १५४६ में कूकड चोपड़ा गोत्रीय शाह राजलदेव की धर्मपत्नी रयणादेवी की कोख से हुआ था । इनका जन्म नाम सारंग था । संवत् १५६० बीकानेर में ग्यारह वर्ष की अल्पायु में आपने आचार्य श्रीजिनहंस रि के पास दीक्षा ग्रहण की । इनकी विद्वत्ता और योग्यता देखकर गच्छनायक श्री जिनहंससूरि ने स्वयं १५८२ (माघ शुक्ला ५) भाद्रपद बदी त्रयोदशी को पाटण में बालाहिक गोत्रीय शाह देवराज कृत नन्दि महोत्सव पूर्वक आचार्य पद प्रदान करके पट्ट पर स्थापित किया था। आपने गुर्जर, पूर्वदेश, सिंध और मारवाड़ आदि देशों में विहार किया ।
एक प्राचीन पट्टावली के अनुसार आपने एक ही दिन में ६४ साधुओं को दीक्षा दी । १२ मुनियों को उपाध्याय पद से विभूषित किया । अन्तिम समय में देराउर यात्रा में भी आपके साथ २४ शिष्य थे ।
(२३) अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि
युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि के पिता रीहडगोत्रीय साह श्रीवंत थे, जो तिमरी नगर के निकटस्थ as गाँव में रहते थे । माता श्रीसिरियादेवी की कुक्षि से संवत् १५६८ में आपका जन्म हुआ और
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