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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ सुन्दरजी जैसों के ४४ शिष्य थे। और, इनके आज्ञानुवर्ती साधु सारे भारत में विचरते थे। उस समय खरतरगच्छ की और भी कई शाखाएँ थीं जिनके आचार्य व साधु समुदाय सर्वत्र विचरता था । साध्वियों की संख्या साधुओं से अधिक होती है अतः समूचे खरतरगच्छ के साधुओं की संख्या उस समय पाँच हजार से कम नहीं होगी।
__ आप स्वयं गीतार्थ विद्वान् थे, आपका शिष्य समुदाय भी असाधारण वैदुष्य का धारक था । आपके धर्म साम्राज्य में अद्वितीय प्रतिभासम्पन्न श्रमणों ने जो साहित्य सेवा की है वह वस्तुतः अभूतपूर्व है। तत्कालीन प्रमुख-प्रमुख विद्वानों के नाम इस प्रकार है :-महोपाध्याय धनराज, महोपाध्याय पुण्यसागर, उपाध्याय साधुकीर्ति, उपाध्याय जयसोम, उपाध्याय ज्ञानविमल, उपाध्याय हीरकलश, उपाध्याय सूरचन्द्र, उपाध्याय समयसुन्दर, उपाध्याय गुणविनय, उपाध्याय कुशललाभ, उपाध्याय सहजकीर्ति, पद्मराज, कनकसोम, चारित्रसिंह आदि ।
(२४) जिनसिंहसूरि आचार्य जिनसिंहसूरि युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर थे और साथ ही थे एक असाधारण प्रतिभाशाली विद्वान् । इनका जन्म विक्रम संवत् १६२५ के मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमा को खेतासर ग्राम निवासी चोपड़ा गोत्रीय शाह चांपसी की धर्मपत्नी श्रीचाम्पलदेवी की रत्नकुक्षि से हुआ था। आपका जन्म-नाम मानसिंह था। संवत् १६२३ में आचार्य जिनचन्द्रसूरि खेतासर पधारे थे, तब आचार्यश्री के उपदेशों से प्रभावित होकर एवं वैराग्य वासित होकर आठ वर्ष की अल्पायु में ही आपने आचार्यश्री के पास दीक्षा ग्रहण की। दीक्षावस्था का नाम महिम राज रखा गया था। आचार्यश्री ने संवत् १६४० माघ शुक्ला ५ को जैसलमेर में आपको वाचक पद प्रदान किया था। "जिनचन्द्रसूरि अकबर प्रतिबोध रास" के अनुसार सम्राट अकबर के आमन्त्रण को स्वीकार कर सूरिजी ने वाचक महिम राज को गणि समय- .. सून्दर आदि ६ साधुओं के साथ अपने से पूर्व ही लाहौर भेजा था । वहाँ सम्राट आपसे मिलकर अत्यधिक प्रसन्न हुआ था। सम्राट के पुत्र शाहजादा सलीम (जहाँगीर) सुरत्राण के एक पुत्री मूल नक्षत्र के प्रथम चरण में उत्पन्न हुई थी; जो अत्यन्त अनिष्टकारी थी। इस अनिष्ट का परिहार करने के लिए सम्राट की इच्छानुसार संवत् १६४८ चैत्र शुक्ला पूर्णिमा को महिमराजजी ने अष्टोत्तरी शान्तिस्नान करवाया, जिसमें लगभग एक लाख रुपया व्यय हुआ था और जिसकी पूजा की पूर्णाहुति (आरती) के समय शाहजादा ने १००००/- रुपये चढ़ाये थे।
कश्मीर विजय-यात्रा के समय सम्राट की इच्छा को मान देते हुए आचार्यश्री ने वाचक महिमराज को हर्षविशाल आदि मुनियों के साथ कश्मीर भेजा था। उस प्रवास में वाचक महिमराज की अवर्णनीय उत्कृष्ट साधुता और प्रासंगिक एवं मार्मिक चर्चाओं से अकबर अत्यधिक प्रभावित हुआ था। उसी का फल था कि वाचकजी की अभिलाषानुसार गजनी, गोलकुण्डा और काबुल पर्यन्त अमारि (अभयदान) उद्घोषणा करवाई और मार्ग में आगत अनेक स्थानों (सरोवर) के जलचर जीवों की रक्षा करवाई। कश्मीर विजय के पश्चात् भी नगर में सम्राट् को उपदेश देकर आठ दिन की अमारी उद्घोषणा कराई थी।
वाचकजी के चारित्रिक गुणों से प्रभावित होकर सम्राट अकबर ने आचार्यश्री को निवेदन कर बड़े ही उत्सव के साथ आपको संवत् १६४६ फाल्गुन कृष्णा दशमी के दिन आचार्यश्री के ही कर-कमलों
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