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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
संवत् १६०४ में केवल ६ वर्ष की अवस्था में ही, पूर्व-पवित्र संस्कारों के द्वारा तीव्र वैराग्य उत्पन्न होने के कारण दीक्षा ग्रहण करली । आपके दीक्षा गुरु श्रीजिनमाणिक्य सूरिजी थे। आपका पुर्व नाम सुलतान कुमार था और दीक्षानाम था सुमतिधीर । आचार्य जिनमाणिक्यसूरि का देराउर से जैसलमेर आते हुए मार्ग में ही स्वर्गवास हो गया था। अतः संवत् १६१२ भाद्रपद शुक्ला ६ गुरुवार को जैसलमेर नगर में राउल मालदेव द्वारा कारित नन्दिमहोत्सवपूर्वक आपको आचार्य पद प्रदान कर, जिनचन्द्रसूरि नाम प्रख्यात कर श्री जिनमाणिक्यसूरि का पट्टधर (गच्छनायक) घोषित किया गया। यह काम बेगड़गच्छ (खरतरगच्छ की ही एक शाखा) के आचार्य श्रीगुणप्रभसूरिजी के हाथों से हुआ । उसी दिन रात्रि में श्रीजिनमाणिक्यसूरिजी ने प्रकट होकर समवसरण पुस्तक और जिनआम्नाय सहित सूरिमन्त्र पत्र श्रीजिनचन्द्रसूरिजी को दिखाया । आपका चित्त संवेग वासना से वासित था। गच्छ में शिथिलाचार देख कर आप सब परिग्रह का त्याग करने मन्त्री संग्रामसिंह तथा मन्त्रीपुत्र कर्मचन्द्र के आग्रह से बीकानेर पधारे । वहाँ का प्राचीन उपाश्रय शिथिलाचारी यतियों द्वारा रोका हुआ देखकर मन्त्री ने अपनी अश्वशाला में ही आपका चातुर्मास कराया और बड़ी भक्ति प्रदर्शित की । वह स्थान आजकल रांगडी चौक में बड़ा उपाथय के नाम से प्रसिद्ध है।।
___ गच्छ में फैले हुए शिथिलाचार को देखकर आप सहम गये। जिस आत्म-सिद्धि के उद्देश्य से चारित्र-धर्म का वेश ग्रहण किया गया; उस आदर्श का यथावत् पालन न करना लोकवंचना ही नहीं, अपितु आत्मवञ्चना भी है । गच्छ का उद्धार करने के लिये गच्छनायक को क्रिया उद्धार करना अनिवार्य है-इत्यादि विचारों के साथ ही आपके हृदय में क्रियोद्धार की प्रबल भावना उत्पन्न हुई । तदनुसार संवत् १६१४ चैत्र कृष्णा सप्तमी को आपने क्रियोद्धार किया। उसी दिवस प्रथम शिष्य रीहडगोत्रीय पं० सकलचन्द्र गणि की दीक्षा हुई । बीकानेर चातुर्मास के पश्चात् संवत् १६१५ का चातुर्मास महेवा नगर में किया और श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ प्रभु के सान्निध्य में छम्भासी तपाराधन किया। तप-जप के प्रभाव से आप में योग शक्तियाँ विकसित होने लगीं।
संवत् १६४७ का चातुर्मास पाटण कर अहमदाबाद होते हुए खम्भात पधारे ।
इसी समय तत्कालीन सम्राट अकबर के आमन्त्रण से आप खम्भात से विहार कर संवत् १६४८ फाल्गुन शुक्ला द्वादशी के दिवस महोपाध्याय जयसोम, वाचनाचार्य कनकसोम, वाचक रत्ननिधान और पं० गुणविनय प्रभृति ३१ साधुओं के परिवार सहित लाहौर में सम्राट से मिले । स्वकीय उपदेशों से सम्राट को प्रभावित कर आपने तीर्थों की रक्षा एवं अहिंसा प्रचार के लिये आषाढ़ी अष्टाह्निका एवं स्तम्भतीर्थीय जलचर रक्षक आदि कई फरमान प्राप्त किये ।
__ एक बार नौरंग खान द्वारा द्वारिका के मन्दिरों के विनाश की वार्ता सुनी तो जैन तीर्थों और मन्दिरों की रक्षा के हेतु सम्राट् से विज्ञप्ति की गई । सम्राट् ने तत्काल फरमान लिखवाकर अपनी मुद्रा लगा के मन्त्रीश्वर को समर्पित कर दिया, जिसमें लिखा था कि “आज से शत्रुजय आदि समस्त जैन तीर्थ मन्त्री कर्मचन्द्र के अधीन हैं।" गुजरात के सूबेदार आजम खान को तीर्थ रक्षा के लिए सख्त हुक्म भेजा जिससे शत्रुजय तीर्थ पर म्लेच्छोपद्रव का निवारण हुआ।
एक बार कश्मीर विजय के निमित्त जाते हुए सम्राट ने सूरि महाराज को बुलाकर आशीर्वाद प्राप्त किया और आषाढ़ शुक्ला ६ से पूर्णिमा तक बारह सूबों में जीवों को अभयदान देने के लिए १२ फरमान लिख भेजे । इसके अनुकरण में अन्य सभी राजाओं ने भी अपने-अपने राज्यों में १० दिन, १५ दिन, २० दिन, २५ दिन, महीना, दो महीना तक जीवों के अभयदान की घोषणा कराई।
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