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खरतर गच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी
(२७) जिनचन्द्रसूरि जिनरत्नसूरि के पट्ट पर जिनचन्द्रस रि आसीन हुए । आपका बीकानेर निवासी गणधर चोपड़ा गोत्रीय साह सहसकिरण की पत्नी सुपियारदेवी की कुक्षि से सम्वत् १६६३ में जन्म हुआ था। आपका जन्म नाम हेमराज था । सम्वत् १७०५ मिगसर सुदी बारस को जैसलमेर में आपकी दीक्षा हुई और आपका नाम रखा गया हर्षलाभ । सम्वत् १७११ में जिनरत्नसूरि का स्वर्गबास होने पर उनकी आज्ञानुसार भादवा बदी सप्तमी के दिन राजनगर में नाहटा गोत्रीय साह जयमल्ल तेजसी की माता कस्तुरबाई कृत महोत्सव द्वारा आपकी पद स्थापना हुई । गच्छवासी यतिजनों में प्रविष्ट होती शिथिलता को दूर करने के लिए आपने सम्वत् १७१८ मिती आसोज सुदी दशमी को बीकानेर में व्यवस्था पत्र लागू किया, जिससे शैथिल्य का परिहार हुआ। .
आपने अपने शासनकाल में अनेकों को दीक्षाएँ दी और अनेक स्थानों में विचरण करते हए संवत् १७६२ में सूरत पधारे । संवत् १७६३ में आपका सूरत में ही स्वर्गवास हुआ।
(२८) जिनसुखसूरि ___ आचार्य जिनचन्द्र के बाद श्रीजिनसुखसूरि पट्ट पर विराजे । ये फोगपत्तन निवासी साहलेचा बोहरा गोत्रीय साह रूपसी के पुत्र थे। इनकी माता का नाम सुरूपा था। इनका जन्म संवत् १७३६ मार्गशीर्ष शुक्ला १५ को हुआ था। संवत् १७५१ वी माघ सुदी पंचमी को आपने पुण्यपालसर ग्राम में दीक्षा ग्रहण की। आपका दीक्षा नाम सुखकीर्ति था । दीक्षा नंदि सूची के अनुसार आपकी दीक्षा संवत् १७५२ फाल्गुन बदी पांचम को बीकानेर में कीर्तिनन्दि में हुई थी। सूरत निवासी चौपड़ा गोत्रीय पारख सामीदास ने ग्यारह हजार रुपये व्यय करके संवत् १७६३ आषाढ़ सुदी एकादशी के दिन आपका पट्ट महोत्सव किया था।
सूरि पदप्राप्ति के अनन्तर कुछ वर्ष गुजरात में विचरे और प्रचुर परिमाण में दीक्षाएँ संवत् १७६५, १७६६, १७६७, १७६८ में क्रमशः खंभात, पाटण और पालनपुरादि में अनेक बार हुई । संवत् १७७० में साचोर, राडधरा, सिणधरी, जालौर, थोभ, पाटोधी आदि में बहुत सी दीक्षाएँ हुई । संवत् १७७१ से १७७३ तक जैसलमेर, पोकरण में तथा १७७४ से १७७९ उदरामपुर, बीकानेर, धड़सीसर, नवहर तक अनेक नन्दियों में बहुत-सी दीक्षाएँ हुई। संवत् १७७३ में नवहर में मिगसर ३ को इन्द्रपालसर के सेठिया भीमराज को दीक्षा देकर भक्तिक्षम नाम से प्रसिद्ध किया।
. फिर एक समय घोघाबिन्दर में नक्खण्डा पार्श्वनाथ की यात्रा करके आचार्य श्रीजिनसुखसरि संघ के साथ स्तम्भतीर्थ जाने के लिए नाव में बैठे। देवगति से ज्यों ही नाव समुद्र के बीच में पहँची कि उसके नीचे की लड़की टूट गई। ऐसी अवस्था में नाव को जल से भरती देखकर आचार्यश्री ने अपने इष्टदेव की आराधना की। तब श्रीजिनकुशलसूरि की सहायता से एकाएक उसी समय एक नवीन नौका दिखाई दी। उसके द्वारा वे समद्र को पार कर सके। फिर वह नौका वहीं अदृश्य हो गई।
___इस प्रकार श्री शत्रुजय आदि तीर्थों की यात्रा करने वाले, सब शास्त्रों के पारगामी तथा शास्त्रार्थ में अनेक वादियों को परास्त करने वाले आचार्य श्रीजिनसुखसूरि तीन दिन का अनशन पूर्ण कर संवत १७८० ज्येष्ठ कृष्णा दशमी को श्रीरिणी नगर में स्वर्ग सिधारे । उस समय देवों ने अदृश्य रूप में बाजे बजाये, जिनके घोष को सुनकर उस नगर के राजा तथा सारी प्रजा चकित हो गई थी। अन्त्येष्टि क्रिया के स्थान पर श्रीसंघ ने एक स्तूप बनाया था, जिसकी प्रतिष्ठा माघ शुक्ला षष्ठी को जिनभक्तिसूरि ने की थी।
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