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खरतर गच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी
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आचार्य विचरण करते हुए दिल्ली के निकट पहुँचे। दिल्ली के मुख्य-मुख्य श्रावक अपने परिवारों के साथ बड़े आडम्बर से आचार्य के दर्शन के लिए वहाँ जाने लगे। दिल्ली के तत्कालीन महाराजा मदनपाल (अनंगपाल, जो कि पृथ्वीराज चौहान के नाना थे) भी आचार्य के दर्शन के लिए आचार्य की सेवा में पहुँचे । संकेत और स्वयं की अनिच्छा होते हुए भी दिल्लीनरेश और प्रमुख श्रेष्ठियों के अत्याग्रह को आचार्य टाल न सके, और दिल्ली आए तथा १२२३ का चातुमास दिल्ली में ही किया। दिल्ली में ही अपने अनन्य भक्त कुलचन्द्र को एक यंत्र पट्ट दिया, जिसकी उपासना से वह समृद्धिशाली सेठ बन गए। एकदा दिल्ली के बाहर जंगल में दो मिथ्यादृष्टि देवियों को मांस के लिए लड़ते हुए देखा। करुणा हृदय सूरिजी ने अधिगाली नामक देवी को प्रतिबोध देकर मांस बलि का त्याग करवाया और पार्श्वनाथ विधि चैत्य के दक्षिण स्तम्भ में रहने के लिए आवास प्रदान किया।
विक्रम संवत् १२२३ भादवा बदी चौदस के दिन इनका स्वर्गवास हुआ। शरीर त्यागते समय आचार्यश्री ने अपने पार्श्ववर्ती लोगों से कहा था “नगर से जितनी दूर हमारा दाह संस्कार किया जाएगा, नगर की आबादी उतनी ही दूर तक बढ़ेगी।" इनका दाह-संस्कार महरोली में किया गया, जहाँ आज भी इनका स्तूप विद्यमान है और चमत्कारों का केन्द्र है । जहाँ आज भी जैन, अजैन सभी उनके प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करने हेतु उनके समाधि स्थल के दर्शन करते हैं।
कहा जाता है कि आपके भालस्थल पर मणि थी, अतः आप मणिधारी जिनचन्द्रसूरि के नाम से ही जैन समाज में दूसरे दादा के नाम से विख्यात हुए।
आपने भी अनेक अजैनों को प्रतिबोध देकर महत्तियाण जाति की स्थापना कर जैन समाज की वृद्धि की थी।
इनके द्वारा रचित कोई विशिष्ट और विशाल कृति प्राप्त नहीं है। केवल लघुकायिक दो कृतियाँ प्राप्त हैं -व्यवस्था शिक्षा कुलक एवं पार्श्वनाथ स्तोत्र । इनके पठनार्थ कागज पर लिखी हुई प्राचीनतम "ध्वन्यालोकलोचन" की प्रति जो जैसलमेर ज्ञान भण्डार की थी, वह आज राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर के संग्रहालय की शोभा बढ़ा रही है। जिसमें इनके लिए विशेषण दिया गया है-"प्रतिवादिकरटिक रट विकटरद............."विज्ञातसकल-शास्त्रार्थ ।"
खरतरगच्छ एवं इसकी अन्य सभी शाखाओं की आचार्य परम्परा में चतुर्थ पाट पर जिनचन्द्र सूरि नाम रखने की प्रथा प्रारम्भ से ही प्राप्त होती है। कई विद्वानों के मतानुसार यह प्रथा संवेगरंगशालाकार जिनचन्द्रसूरि से प्रारम्भ हुई, परन्तु अधिकांश विद्वानों का मत है कि यह चतुर्थ नाम की परम्परा मणिधारी जिनचन्द्रसूरि से ही प्रारम्भ हुई है।
(८) युगप्रवरागम जिनपतिसरि जन्म-विक्रम संवत् १२१०, दीक्षा-१२१७, आचार्य पद १२२३, स्वर्गवास १२७७ । __ मणिधारी जिनचन्द्रसूरि के पाट पर षट्त्रिंशद्वादविजेता युगप्रवरागम जिनपतिसूरि हुए। मरुस्थल के विक्रमपुर निवासी माल्हू गोत्रीय श्रेष्ठि यशोवर्धन की भार्या सूहव देवी की कुक्षि से विक्रम संवत् १२१० चैत्र बदी आठम के दिन आपका जन्म हुआ था। आपका जन्म नाम नरपति था। विक्रम संवत् १२१७ फाल्गुन सुदी दसवीं के दिन मथुरा में मणिधारी जिनचन्द्रसूरि ने इनको दीक्षा प्रदान की थी। जिनचन्द्र सूरि के स्वर्गवास के पश्चात् उन्हीं के निदेशानुसार विक्रम संवत् १२२३ कार्तिक सुदी तेरस को दिल्ली में ही बड़े महोत्सव के साथ इनको आचार्य पद प्रदान किया गया था। स्वर्गीय युगप्रधान जिनदत्तसूरि जी के वयोवृद्ध शिष्य जयदेवाचार्य के तत्वावधान में यह महोत्सव सम्पन्न हुआ और इनका
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