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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ को बुलाया । आचार्यश्री के तेजस्वी मुखमण्डल को देखकर वह प्रसन्न हुआ और संघ यात्रा को चालू रखने का आदेश दिया । द्रमकपुरीयाचार्य को झूठी शिकायत के कारण कैद कर लिया। आचार्य जिनचन्द्र सूरि ने सेठ तेजपाल, साह खेतसिंह, ठाकुर अचलसिंह और ठक्कर फेरु को बादशाह के पास भेजकर उस आचार्य को कैद से मुक्त कराया । वहाँ से प्रयाण करते हुए खंडासराय स्थान पर पहुँचे। चातुर्मास निकट आ जाने से चातुर्मास वहीं किया। संघ के अग्रगण्यों अचलसिंह आदि के अनुरोध पर चातुर्मास में ही मथुरा तीर्थ की यात्रा की । वहाँ से वापस लौटकर खंडासराय में ही चातुर्मास पूर्ण किया । चातुर्मास में जिनचन्द्रसूरिजी महाराज के स्तूप की दो बार बड़े विस्तार से यात्रा की ।
___ अकस्मात् ही आचार्यश्री के शरीर में कम्परोग उत्पन्न हुआ। अपने ध्यान-बल से अपना अन्तिम समय निकट जानकर राजेन्द्रचन्द्राचार्य के नाम पत्र लिखकर ठाकुर विजयसिंह के हाथ भिजवाया। इस पत्र में निर्देश दिया गया था कि मेरे पट्ट पर वा० कुशल कीर्ति गणि का अभिषेक करना । इधर मेडता नगर के राणा मालदेवजी का अनुरोधपूर्ण आमन्त्रण पाकर वहाँ से मेडता नगर के लिए विहार किया । मेडता पधारने पर राणा मालदेव ने बड़े ठाठ-बाट से प्रवेशोत्सव कराया। वहाँ से कोसाणा पधारे । संवत् १३७६ आषाढ़ सुदी के दिन ६५ वर्ष की उम्र में जिनचन्द्रसूरिजी ने इस विनाशशील पंचभौतिक शरीर को त्यागकर स्वर्ग में देवताओं का आतिथ्य स्वीकार किया। विधि-विधान के साथ आपका वहाँ दाह-संस्कार किया गया। तत्पश्चात् मंत्रीश्वर देवराज के पौत्र मंत्री माणकचन्द्र के पुत्र मंत्री मुन्धराज श्रावक ने चिता स्थान की जगह आचार्यश्री की चरणपादुका सहित एक सुन्दर स्तुप बनवाया।
(१२) दादा श्री जिनकुशलसूरि प्रत्यक्ष प्रभावी युगप्रधान तीसरे या छोटे दादाजी के नाम से विख्यात जिनकुशलसूरि एक असाधारण महापुरुष थे। आपका जन्म सिवाणा में संवत् १३३७ मिगसर बदी तीज के दिन हुआ था। छाजेड़ गोत्रीय मन्त्री देवराज आपके पितामह थे और जेसल/जिल्हागर आपके पिता थे । आपका जन्म नाम कर्मण था । कलिकालकेवली जिनचन्द्रसूरि, जो कि संसार पक्ष में आपके चाचा होते थे, के उपदेश से प्रतिबोध पाकर उन्हीं के करकमलों से संवत् १३४५ फाल्गुन शुक्ला अष्टमी के दिन गढ़ सिवाणा में अर्थात् अपनी जन्मभूमि में ही दीक्षा ग्रहण की। आपका दीक्षित होने पर नाम रखा गया था कुशलकीर्ति । तत्कालीन गच्छ के वयोवृद्ध गीतार्थ विवेकसमुद्र के पास समस्त शास्त्रों का अध्ययन किया था। १३७५ माघ सुदी बारस को बड़े महोत्सव के साथ जिनचन्द्रसूरि ने कुशलकीर्ति गणि को नागौर में वाचनाचार्य पद प्रदान किया था। गच्छनायक जिनचन्द्रसूरि का स्वर्गवास हो जाने पर उनके निर्देशानुसार ही राजेन्द्रचन्द्राचार्य ने संवत् १३७७ ज्येष्ठ वदी ग्यारस के दिन अणहिलपुर पाटन में महामहोत्सव के साथ अनेक देशों के संघ के समक्ष वाचनाचार्य कुशलकीर्ति को आचार्य पद पर स्थापित किया और इनका नामकरण किया जिनकुशलसूरि । इस उत्सव का सारा आयोजन पाटण के सेठ तेजपाल रुद्रपाल ने किया था।
संवत् १३७८ का चार्तुमास भीमपल्ली में किया। वहाँ हेमभूषण गणि को उपाध्याय पद और मुनिचन्द्र गणि को वाचनाचार्य पद दिया और अनेकों को दीक्षा दी। विवेकसमुद्रोपाध्याय का सांध्यकाल निकट जानकर पुनः पाटण आये और उन्हें विधिपूर्वक अनशन करवाया । संवत् १३७८ ज्येष्ठ शुक्ला दूज को उनका स्वर्गवास हुआ । आषाढ़ शुक्ला तेरस के दिन पाटण में ही उनके स्तूप की प्रतिष्ठा करवाई । विवेक-समुद्रोपाध्याय ने ही तत्कालीन गणनायक कलिकालकेवली जिनचन्द्रसूरि, दिवाकराचार्य, राजशेखराचार्य, वाचनाचार्य राजदर्शन गणि, वाचनाचार्य, सर्वराज गणि आदि अनेक मुनिगणों को आगम, व्याकरण, न्याय आदि शास्त्रों का अभ्यास करवाया था।
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