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खण्ड १ । व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण
यह सर्वथा सत्य है कि नारी शारीरिक बल में पुरुष से घटकर है, पर यह ध्यान रखना चाहिये कि शारीरिक बल ही सब कुछ नहीं है । यह निर्विवाद सर्वसम्मत है कि शारीरिक बल से नैतिक बल कहीं ज्यादा बढ़ा-चढ़ा है । शारीरिक बल तो पशुबल है, जो सर्वथा निन्दित और गहित है। ये नैतिक बल ही है, जिसके चलते मनुष्य में देवत्व की प्रतिष्ठा होती है । समस्त नैतिक बलों की अधिष्ठात्री नारी ही है ।
मेरी समझ से नारी को यदि अबसर मिले तो वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मात्र पुरुष की समता ही नहीं कर सकती, बल्कि जीवन के कुछ महत्वपूर्ण उपयोगी क्षेत्रों में पुरुष से बढ़कर अपने को सिद्ध कर सकती है । यह केवल कपोल कल्पना नहीं है। इतिहास में ऐसी बहुत-सी नारियाँ हो चुकी हैं जिन्होंने अवसर पाकर गौरव के उच्च शिखर पर अपने को आसीन किया है। दूर अतीत को छोड़ भी दें, तो राजनीति में श्रीमती इन्दिरा गाँधी, काव्य में महादेवी वर्मा आदि किस माने में पुरुष से घटकर थीं। धार्मिक क्षेत्र में मदर टेरेसा का नाम लिया जा सकता है । साध्वी जगत् में मैं जिन-जिन से प्रभावित हआ, उनमें विचक्षणश्रीजी और सज्जनश्रीजी का नाम मुख्य है। ये दोनों आचार्य पदधारी न रहो हों, पर उनका व्यक्तित्व मुझे किसी पहुँचे हुए आचार्य से भी बढ़कर लगा है।
प्रवतिनीश्री सज्जनश्रीजी नारीत्व की ज्योतिर्मयता को संवहन करने वाली दीपिका हैं । उनका जीवन प्रकाशवाही है । वे कम बोलती हैं । पर जो बोलती हैं, वह उनकी ज्योतिर्मयता की जम्हाई होती है। उनके बोल उसे बहुत भाते हैं, जो स्वयं ज्योतिर्मय होने के लिए उत्कण्ठित है । वे मितभाषी साध्वी हैं। इसलिए वहाँ होठों के स्वर उतने अच्छे नहीं लगेंगे, जितने उनके मौन के स्वर । मुझे तो बहत सुहाया उनका वह रूप, जिसमें भाषा का लेन-देन कम है । मेरी समझ से यह गुण अहिंसा-महाव्रत का पालन करने के लिए एक अनिवार्य शर्त है ।
साध्वीश्री के गेहए मिट्टी के दीये में जगमगाती है उजली दिव्यता । वे सही अर्थों में साध्वी हैं। उनमें कषाय नहीं है, अत. वे पशुता की सीमा से परे हैं । कषाय और पशुता दोनों में मैत्री है । कषाय वह है, जो व्यक्ति को कसता है और पशु वह है जो पाश में बँधा है। मनुष्य मनन करता है पाश-मूक्ति के बारे में । इसलिए मनुष्य मननशील-जन्तु है । साधुई जीवन पशु और मनुष्य से ऊपर खिला कमल है। विवेच्य साध्वी के साथ यह साधुई उपमा पूरी तरह फबती है ।
साध्वी श्री सज्जनश्रीजी वात्सत्य और सेवा की तो प्रतिमूर्ति हैं । मैंने उनके जीवन-चक्र में घटित हुई कुछेक घटनाओं को सुना है अपनी नन्हीं-बड़ी साध्वियों के गुणानुरागी मुख से । उन्होंने अपनी गुरुवर्या की जबरदस्त सेवा-सुश्रुषा की । गुरु-भगिनियों के प्रति उनका आत्मीय व्यवहार तो मैंने भी प्रत्यक्ष निहारा है । एक भेद-विज्ञानी साधिका हुईं-साध्वीश्री विचक्षणश्री। उनके साथ कितना मधुर सम्बन्ध, अपनापन और वैयावृत्यझंकृत व्यवहार था उनका मैंने वह सब उस समय देखा है, जब मैं उनकी सज्जनता से अपरिचित था।
प्रवर्तिनीजी की विनयशीलता की खरतरता-तेजस्विता ने भी मुझे प्रभावित किया। प्रवतिनीजैसा उच्च पद प्राप्त होने के उपरान्त भी अपनी गुरु-बहिनों के साथ इतना नम्र और झका हआ व्यवहार कम महत्वपूर्ण नहीं है । विद्वत्ता के टोले हर कोई खड़ा कर सकता है, किन्तु ऋजुता/सरलता की सहज प्रवाहवती धारा हर किसी के दिल से उद्भूत नहीं हो सकती। उनमें संगम है दोनों का गंगा यमुना का, विद्वत्ता ऋजुता का । बिना ऋजुता का ज्ञान व्यक्ति के लिए अहंकार का कारण बनता है। च कि ऋजुता उनकी परछाई है, अतः उनका निरभिमानी होना स्वयमेव सिद्ध हो जाता है। .
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