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खण्ड १ | जीवन ज्योति : कृतित्व दर्शन मुक्तकों के अतिरिक्त कवयित्री ने 'कथा गीतिकाएँ' नाम से जो रचनाएँ लिखी हैं, उनमें गीतों के रूप में कथा कही गयी है । उन कथाओं में राजकुमारी प्रभंजना, महारानी सीता, सती शिरोमणि अंजना, सती मगायती, सती मदनरेखा, सती ऋषिदत्ता आदि का आख्यान गाया गया है। इनमें नारी के सतीत्व, शौर्य, शील, तप, संयम, कष्ट-सहिष्णुता, पतिव्रत धर्म, त्याग, समर्पण जैसे उदात्त जीवन मूल्यों को उजागर किया गया है। यहाँ नारी अबला बनकर नहीं, सबला बनकर, शक्ति बनकर प्रकट हुई है । नारी दैहिक शृंगार की आलम्बन नहीं, आत्मिक शृंगार की माधुर्यमयी मूर्ति और उत्सर्गमयी स्फूर्ति है।
यथाप्रसंग कवयित्री ने नव पद आराधना, तपस्या, अक्षय तृतीया, नन्दीश्वरद्वीप, पयुर्षण आदि के सम्बन्ध में भी गीत लिखे हैं । इन गीतों में संबद्ध विषय के महत्व और आराधना-विधि को स्पष्ट किया गया है।
कवयित्री के भाव पक्ष और कला पक्ष दोनों में सहजता, सरलता और सहृदयता की रक्षा हई है। कवयित्री की भाषा सरल और बोधगम्य है । उसमें राजस्थानी और गुजराती का मिश्रित स्वाद है। भावों को अनुभूति के स्तर पर व्यक्त किया गया है। कारीगरी और कलाबाजी से कवियत्री दूर रही है। अपने भावों को स्पष्ट करने के लिए यथाप्रसंग सादृश्यमूलक अलंकारों का विशेष प्रयोग हुआ है । कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं:
रूपक
प्रभु दर्शनरवि जब उदय हुआ, महामोह-तिमिर का विलय हुआ। होली रूपक
ज्ञान की गुलाल उड़ाकर, प्रभुजी की पूजा रचाओ। भक्ति भावना के जल से भरकर, सुमन पिचकारी चलाओ। ध्यान-वह्नि प्रज्वलित कर मन में, षोडश कषाय जलाओ । नोकषाय और मोहनीत्रिकसह, मोह को मार भगाओ।
शुद्ध समकित प्रकटावो। ऐसी होरी मनाओ, सखी नित प्रभ गुण गावो ।।
उपमा
जो एक रूप और एक रस बनकर, प्राणेश्वर ! तब पद-पंकज में । मधुकर सा मोहित सदा रहा, उस मन को नाथ सताया क्यों ?
तन मन से थे एक रूप ही, जैसे दूध और पानी, क्षण भर भी नहीं दूर थे रहते, समझी आज विरानी।
उत्प्रेक्षा
मरकट ज्यों रहता है उछलता, कूदत डाली-डाली, पकड़-पकड़ कर रखने पर, भग जाता दे ताली रे।
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