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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ इस प्रसंग को उक्त रूप में न आलेखित कर अपना मौन भाव ही प्रकट किया हो । अतः यह ध्रुव सत्य है कि आचार्य जिनेश्वर का सूराचार्य के साथ दुर्लभराज की राजसभा में शास्त्रार्थ हुआ और उसमें सूराचार्य पराजित हुए।
कुछ लोग अर्वाचीन पट्टावलियों के अनुसार इस वाद-विवाद के समय के विषय में भी निरर्थक वाद-विवाद को खड़ा करते हैं । यह चर्चा किस संवत् में हुई थी ? उसके सम्बन्ध में युगप्रधान जिनदत्तसूरि, जिनपालोपाध्याय, सुमतिगणि, प्रभावकचरितकार आदि मौन हैं । इसका कारण भी यही है कि सब ही प्रबन्धकारों ने जनश्र ति, गीतार्थथ ति के आधार से प्रबन्ध लिखे हैं और वे भी सब १०० और २५० वर्ष के मध्यकाल में । वस्तुतः समग्र लेखकों ने संवत् के सम्बन्ध में मौन धारण कर ऐतिह्यता की रक्षा की, अन्यथा संवत् के उल्लेख में असावधानी होना सहज संभाव्य था । अतः यह सहज सिद्ध है कि महाराज दुर्लभराज का राज्यकाल १०६६ से १०७८ तक का माना जाता है, उसी के मध्य में यह घटना
___ खरतरगच्छ की उत्पत्ति मूलतः वर्धमानसूरि की अध्यक्षता में हुई थी, अतः इस खरतरगच्छ का संक्षिप्त परिचय आचार्य वर्धमानसूरि से ही प्रारम्भ किया जा रहा है।
(१) आचार्य वर्धमानसरि ___ अभोहर देश में जिनचन्द्र नाम के चैत्यवासी आचार्य निवास करते थे और वे चौरासी स्थानों के अधिपति थे। उन्हीं के शिष्य वर्धमान थे। जिनचन्द्राचार्य ने उनको आचार्य पद भी प्रदान कर दिया था। आचार्य वर्द्धमान शास्त्रविरुद्ध चैत्यवासियों के आचार से अत्यन्त खिन्न रहते थे और अन्त में गुरुआज्ञापूर्वक परम्परा को त्यागकर दिल्ली आए और शास्त्र-सम्मत संयमी जीवन पालन करने वाले उद्योतनाचार्य के शिष्य बने । उद्योतनाचार्य ने भी उन्हें योग्य समझकर आचार्य पद से विभूषित किया। इन्हीं के नेतृत्व में आचार्य जिनेश्वर ने अणहिल पत्तन में शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की । खरतरविरुद प्राप्त किया। आचार्य वर्द्धमान ने सूरिमन्त्र की भी विशिष्ट साधना की और यह मन्त्र उनके लिए संस्फुरित हो गया था। अर्वाचीन पट्टावलियों के अनुसार आबू पर्वत पर महामन्त्री विमलकारित "विमलवसही" की प्रतिष्ठा भी इन्हीं आचार्य के करकमलों से हुई थी।
आचार्य वर्द्धमान भगवान महावीर की सौधर्मीय परम्परा में अड़तीसवें पाट पर कौटिकगण, चन्द्र कूल, वज्रशाखा एवं खरतरविरुदधारक थे।
इनका शिष्य समुदाय भी विशाल था और वे स्वयं शास्त्रों के प्रौढ़ विद्वान् थे। इनके द्वारा प्रणीत उपदेशपद टीका (रचना सम्वत् १०५५) उपदेशमाला बृहत्वृत्ति, उपमिति भवप्रपंच कथा समुच्चय एवं कुछ स्तोत्र आदि प्राप्त होते हैं।
इनका समय अनुमानतः ग्यारहवीं शताब्दी के प्रथम चरण से १०८० तक माना जा सकता है । इनका स्वर्गवास आबू पर्वत पर ही हुआ था। इनके द्वारा विक्रम संवत् १०४६ में प्रतिष्ठित कटिग्राम की प्रतिमा प्राप्त है।
१. कथाकोष प्रस्ता० पृ० ४१ २. अर्वाचीन विन्हीं पट्टावलियों में सं० १०८० का उल्लेख मिलता है तो किसी में १०२४ का, जो श्रवण परम्परा ___ का आधार रखता है। इस परम्परा में भी ६००, ८०० वर्ष के अन्तर में २-४ वर्ष का लेखन फरक रह जाय,
यह स्वाभाविक है । इसे चर्चा का रूप देना निरर्थक ही है । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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