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एक बहु-आयामो समग्र व्यक्तित्व
१७७ अध्ययन के विषय में कहाँ तक लिखू ? जैसा प्रत्यक्ष देख रही हूँ वैसा वर्णन करती चलू तो एक ग्रन्थ निर्मित हो जाये।
(१०) अध्यापन--अध्ययन करना जितना सहज है, अध्यापन करना उतना ही कठिन । क्योंकि व्यक्ति अपनी बुद्धि से किसी भी तरह अर्थात् येन-केन-प्रकारेण विषय को स्पष्ट कर लेता है और समझकर दिमाग में बैठा लेता है पर उसी विषय को जब अन्य को समझाना होता है तो उसके लिए अत्यन्त दुष्कर हो जाता है। अध्ययन करने वाला स्वयं के लिए स्वयं की इच्छाओं का त्याग करता है जबकि अध्यापन कराने वाले को पर के लिए अर्थात् दूसरों के लिए अपनी स्वयं की इच्छाओं का त्याग करना पड़ता है। दूसरों को पढ़ाते समय स्वयं के सन्तुलन को बनाये रखना व अध्ययनार्थी पर प्रेमपूर्वक अनुशासन करते हुए शिक्षा देना कोई सामान्य बात नहीं है । प्रकाण्ड विद्वान भी समय पर उपयुक्त भाव भाषा के अभाव में योग्य धैर्य न रख पाने से अपना सन्तुलन खो बैठते हैं।।
पर श्रद्धया गुरुवर्या श्री अपने तीव्र एवं योग्य अध्ययन के साथ-साथ अध्यापन कार्य में भी पूर्णतः निपुण हैं । आपश्री की वाणी में कहीं कोई दर्प नहीं । अनुशासन की सत्ता नहीं, व्यवहार में बड़प्पन की झलक नहीं । सामान्य बोलचाल की भाषा में अनेकों उदाहरणों से विषय को स्पष्ट कर विद्यार्थी को सन्तुष्ट करने की आपश्री में अद्भुत शक्ति है ।
___ अध्ययनार्थी को संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, व्यावहारिक व क्लासीकल शिक्षा से लेकर आगमिक ज्ञान पर्यन्त सम्पूर्ण अध्ययन कराने के लिए सदा तैयार रहती हैं। यद्यपि आपश्री ने किसी प्रकार की कोई परीक्षा देकर डिग्रियाँ प्राप्त नहीं की हैं तथापि योग्यता इतनी अधिक है कि प्रथमा से लेकर शास्त्री, आचार्य, एम. ए., एम. फिल. आदि परीक्षाओं के छात्र-छात्राओं व साधु-साध्वियों को आपने पढ़ाया है व वर्तमान में भी पढ़ा रही हैं तथा उनकी शंकाओं का बहुत ही सुन्दर ढंग से समाधान करती हैं। अन्य गच्छ की श्रमणीवृन्द भी शास्त्र वाचन हेतु निःसंकोच आपश्री के पास आती रहती हैं और आपश्री भी उदार हृदय से उन्हें वांचना प्रदान करती हैं। आप श्र तःस्थविरा व पर्याय-स्थविरा तो थी ही पर अब वयःस्थविरा की श्रेणी में भी पूर्णतः प्रवेश कर चुकी हैं, और शरीर पर रुग्णता ने आधिपत्य स्थापित कर लिया है अतः शारीरिक क्षमता अल्प हो गई है। फिर भी अध्यापन रुचि ज्यों की त्यों बनी हुई है। यह हमारा परम सौभाग्य है।
(११) तप के प्रति अनन्य श्रद्धा-तप श्रमण-जीवन का अनन्य आभूषण है। शास्त्रों में अहिंसा संयम तप को उत्कृष्ट धर्म मंगल कहते हुए तप के महात्म्य को निर्विकल्प स्वीकार किया है। साधना में रत्नत्रय अर्थात् सभ्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यग्चारित्र की आराधना के साथ ही सम्यक्तप का समावेश साधक की साधना में चार चाँद लगा देता है। इन चारों की सम्यग् साधना से ही साधक अविलम्ब आत्मदर्शन अर्थात् स्वरूप की प्राप्ति कर सकता है।
___श्रद्धे या पूज्याश्री इस तथ्य को पूर्णतः हृदयंगम कर चुकी हैं। इसलिए आपश्री के उद्गार आपकी कृति के माध्यम से स्पष्टः व्यक्त हो रहे हैं-'तप संयम रमणता""ये ही तो हैं श्रमणता"..'
____ आपश्री के जीवन में त्याग तप, संयम की त्रिवेणी निरन्तर प्रवाहमान है जो आपकी दैनिक क्रियाओं में व उपदेशों में स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती है। आपश्री ने अपने ४७ वर्ष के दीर्घकालीन संयमी जीवन में व उससे पूर्व गार्हस्थ्य जीवन में अनेक प्रकार की तपस्यायें की। यथा-वर्षी तप, उपधान, मासक्षमण, नवपद, बीसस्थानक आदि । प्रायः देखा जाता है- तपस्वियों की प्रकृति अक्सर उग्र हो
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