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एक श्रेष्ठ जीवन चरित "पुण्य जीवन ज्योति”-अवगाहन
--महावीर प्रसाद अग्रवाल
(व्याख्याता : हिन्दी
एम. एस. जैन वरिष्ठ उ० मा० विद्यालय, जयपुर) जिनकी कीर्ति का कल गान हम निरन्तर अपने पूज्य गुरुजनों, श्रद्धेय परिजनों, सहमार्गी साथियों और सुविख्यात सामाजिकों से सुना करते हैं तथा जिनके दर्शन, स्पर्शन एवं सेवा का सौभाग्य हमें नहीं मिला है, उनके विषय में साधिकार कुछ लिखना कठिन कार्य है, एक ऐसी चुनौती है जिसे स्वीकार करने का साहस विरले ही नर-रत्न कर पाते हैं । खरतरगच्छ सम्प्रदाय की महत्तरा साध्वीरत्न स्व. श्रीमती पुण्यश्री जी महाराज साहब की जीवन कथा का आलेखन भी एक ऐसा ही दुसाध्य कार्य था, जिसे सम्पन्न करने का सुयोग मिला उनकी प्रशिष्या साध्वी श्रेष्ठ श्रीमती सज्जनश्रीजी महाराज साहब को ।
पूज्य पुण्यश्रीजी महाराज साहब परम त्यागी, चारित्रनिष्ठ, निरभिमानी, करुणासिक्त, धीर-प्रशान्त, प्रभावशालिनी, विदुषी साध्वीरत्न थीं। वे आत्मविकास की उस श्रेणी पर पहुँची हुई साध्वी श्रेष्ठा थीं जहाँ आत्मज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गण विशद बनने की भूमिका पर होते हैं। उनमें शास्त्रोक्त वे सभी गुण विद्यमान थे, जो साधक जीवन के लिए अनिवार्य माने जाते हैं। परोपकार की पुनीत सौरभ से सुवासित उनका जीवन चरित्र प्रत्येक के लिए आदरणीय, अनुकरणीय और आचरणीय है । लेखिका ने अपने लेखन कौशल से अमर प्रेरणा की स्रोत, पुण्य जीवन ज्योति साध्वी पुण्यश्रीजी म. सा. के व्यक्तित्व की न केवल प्रभावी प्रस्तुति की है वरन् खरतरगच्छ सम्प्रदाय के १५० वर्षों के इतिहास का भी उल्लेख किया है । इसमें सम्प्रदाय की २०० से भी अधिक साध्वीरत्नों तथा ५० से भी अधिक साधकों के उज्ज्वल जीवन चरित्रों को मणिकांचन सम जड़ दिया है । इससे इस पुस्तक की उपयोगिता एक ऐतिहासिक ग्रन्थ के सदृश बढ़ गई है। इससे वैराग्य-पथ के पथिकों को त्याग, समर्पण, सेवा और अपूर्व आत्मबल मिल सकेगा।
ग्रन्थ लेखन की प्रेरणा लेखिका को अपने संस्कारों और वातावरण से मिली । लेखिका के पिता प्रसिद्ध तेरहपंथी साहित्यसेवी श्री गुलाब चन्द जी लूनिया अपनी सुयोग्य पुत्री से चरित्रनायिका की खुले दिल से प्रशंसा किया करते थे। उनका कहना था कि "हमने उनके जैसी प्रभावशालिनी शास्त्रज्ञा एवं मधुर भाषिणी अन्य साध्वी नहीं देखी।" उनकी सवा सौ से भी अधिक साध्वी शिष्याएं थीं । उनके समय में खरतरगच्छ सम्प्रदाय को जो श्रीवृद्धि हुई, वह चरित्रनायिका के दिव्य गुणों की ओर ही संकेत करती है । यशःसौरभ ही संबल बना, पूज्य गुरुवर्याओं से निरन्तर उनके विषय में सुनने को मिलता ही था, जिज्ञासा बढ़ने लगी । ज्ञात हुआ कि चरित्रनायिका की प्रमुख शिष्या तथा लेखिका की गुरुवर्या
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