________________ 120 खण्ड 1 | जीवन ज्योति है कि जीवन हो तो ऐसा हो, जो कि सबके बीच रहते भी सबसे न्यारे, सबसे परे, अनासक्त योगिनी बन सदा स्वयं में मग्न, लक्ष्य साधना के लिए कटिबद्ध, अध्ययन अध्यापन में तल्लीन रहती है। इनके प्रति मेरी श्रद्धा समान बनी रही। कभी भी श्रद्धा में रुकावट नहीं आयी। जिसका मुख्य कारण यही है कि इनके जीवन में बनावट नहीं है, सजावट नहीं है, किसी के प्रति खेद नहीं व भेद नहीं है, रोष नहीं है, आक्रोश नहीं है, छलरहित हैं, मलरहित हैं, कभी भी इनमें माया, कपट, मान उत्तेजना नहीं देखी। गुरु के प्रति पूर्ण समर्पित भाव था, हृदय के अगाध आस्था थी, गुरुआज्ञा में गुरुसेवा में सदा र रहती थीं। गुरु शिष्य के व्यवहार को देखकर कई साध्वीजी महाराज व पू. उपयोगश्रीजी महाराज साहब कहा करती थीं कि शिष्या बने तो सज्जनश्रीजी जैसी। जिससे ऐसी शिष्या को पाकर ग रु परम शान्ति का अनुभव करें अन्यथा शिष्या न बने व पू. प्रवर्तिनी श्री विचक्षणश्रीजी म. सा. तो अपनी शिष्याओं को कई बार सम्बोधन करती थीं कि बड़ों के प्रति सदा आदर का भाव रखती हैं तो छोटों के प्रति भी कम आदर नहीं है / सभी के साथ आत्मीयता का व्यवहार करती हैं / सभी के प्रति वात्सल्य उमड़ता है / करुणा की साक्षात् देवी हैं। दीन-दुःखी के प्रति कभी हीनता के भाव नहीं देखे, उन्हें, सहानुभूति के साथ गले लगाती हैं / पटित से अधिक अपटित को महत्व देती हैं / अमीर से अधिक गरीब को स्थान देती हैं। सागर की गहराई का थाह पाना मुश्किल है उसी तरह पू. ग रुर्या श्री के गुणों के अथाह सागर को शब्दों में बाँधना मेरे लिए दुष्कर है / गुरुदेव से हार्दिक प्रार्थना करती हूँ कि पू. गुरुवर्या श्री दीर्घायु बन शासनोन्नति करती हुई हम जैसे संसार में भ्रमित, दोषों से ग्रसित प्राणियों को पथ प्रदर्शन कर शाश्वत सुख को प्राप्त करें। 0 श्रीबुद्धिसिंह, श्रीपवित्रकुमार, श्रीअशोककुमार, बाफना पूज्या प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी महाराज साहब से मेरा परिचय मेरे शैशवकाल से ही है / मेरे मामा श्रीसोभागमलजी साहब गोलेच्छा के ज्येष्ठ पुत्र श्रीकल्याणमल साहब गोलेच्छा से आपका विवाह हुआ था और आप सदैव अपनी बुआ के यानि मेरे घर आती रहीं और मेरे बाल्यकाल में इनका मुझे भरपूर स्नेह मिला जो मेरी स्नेहमयी भाभज रही जिसकी स्मृतियाँ आज भी मेरे हृदय में अंकित है। गृहस्थ जीवन में भी आप सदेव गम्भीर और सौम्य थीं। मैंने एक क्षण भी आपको उच्छखल होते नहीं देखा और सदैव वाणी पर संयम बनाये रखा / मेरी आयु ज्यों-ज्यों बढ़ती गई और जब भी आपसे मिलता आपकी शालीनता से उत्तरोत्तर प्रभावित होता रहा / मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि आपके गृहस्थ जीवन में ही आप में साधुत्व के लक्षण प्रकट होते रहे हैं। ___ आपका जीवन सदैव निस्पृह और मर्यादित रहा है। दीक्षा तो ऐसे मर्यादित जीवन की अनिवार्यता है / दीक्षा के पश्चात् भी आप सर्वथा प्रचार और प्रसार से दूर रहीं और मान और प्रतिष्ठा के अहं को आपने कभी भी अपने व्यक्तित्व को स्पर्श नहीं करने दिया। एक बात विशेष रूप से अभिव्यक्त करना चाहूंगा कि आप तेरापंथ परिवार में जन्मी, स्थानकवासी परिवार में आपका विवाह हुआ और मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में आपने दीक्षा ग्रहण की। अतः आपमें सम्पूर्ण श्वेताम्बर जैन समाज का त्रिवेणी संगम है और ऐसी उदारता है जिसमें वैचारिक भेद कभी उत्पन्न ही नहीं होते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org