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खण्ड १ | व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण
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आयोश्री प्रज्ञाश्रीजी० म०
(सुशिष्या प्रवतिनीश्री जिनश्री म० सा०) प्रथम दर्शन के क्षणों में ही परमपूज्या प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी म० सा० के अपूर्व व्यक्तित्व से मन इतना प्रभावित व प्रफुल्लित हो गया था कि जिसका वर्णन करना लेखनी की शक्ति से परे है।
सम्मेतशिखर तीर्थ में जब अपश्री का नाम सुना, तब से मन में तीव्र उत्कंठा थी कि कब आप श्री के दर्शन का अपूर्व लाभ प्राप्त हो । वह स्वर्ण अवसर आ ही गया और कलकत्ता-चातुर्मास आपश्री के साथ होना तय हुआ । आपके ज्ञान ध्यान की बातें सुनी ही थीं। जब सभी १५ ठाणों का चातुर्मास साथ में होगा यह निर्णय हुआ तो मन बाँसों उछलने लगा और आनन्द से भरा मन उन सुनहरी घड़ियों की तीव्रता से प्रतीक्षा करने लगा । समय अपनी गति से बीतता गया और शीघ्र ही वह शुभ क्षण आ गया। कलकत्ता दादाबाड़ी में आपश्री के प्रथम बार दर्शन करके कृत्य-कृत्य हुई।
आप श्री के सान्निध्य का मेरा निजी अनुभव सिर्फ ६ माह का है । प्रारम्भ में तो लगता था कि मैं अल्प बुद्धि के कारण इस अल्प समय में कुछ भी नहीं पा सकूगी । परन्तु बाद में प्रतीत हुआ कि अल्प समय में मेरी अल्पमति ने जितना भी अनुभव प्राप्त किया है वह गहन गम्भीर है, मौलिक है, अलौकिक है । स्वाध्याय व आत्म चिन्तन ही आपश्री के प्राण हैं। आपश्री अपनी शिष्याओं व प्रशिष्याओं तथा आत्मीयजनों को भी स्वाध्याय, ध्यान और आत्मचिंतन की ओर प्रेरित करती रहती हैं।
___ आपश्री के अनेक गुणों में से मेरे जीवन पर जिसकी अमिट छाप पड़ी है वह है आपश्री की तीव्र ज्ञान पिपासा । तब मेरी उम्र १८ वर्ष की थी। किन्तु मैंने जब आपश्री की करीब ५५-६० वर्ष की उम्र में भी इतनी तीव्र ज्ञान पिपासा देखी; मेरा मन मुझे ही कोसने लगा। सोचने लगी कि देखो आपश्री की कैसी ज्ञान पिपासा है ? इधर मैं ऐसी हूं कि समय प्रमाद में ही बीत रहा है । बस उन्हीं दिनों से मेरे मन में आपका वही गुण आदर्श रूप बन गया और मैं भी यत्किचित् ही क्यों न हो अध्ययन में तन्मय होने का प्रयत्न करने लगी । आपश्री अध्ययन में इतनी तल्लीन रहती थीं कि भूख प्यास भी भूल जाती।
वात्सल्य भावना आपके रोम-रोम में भरी है । आप इतनी मधुरता से पुकारतीं कि वह मधुर आवाज आज तक भी विस्मृत नहीं हुई।
__ आपश्री के अल्प संपर्क से मेरे हृदय में यह भावना दृढ़ हो गई कि आपश्री कितनी महान् हैं। ज्ञान ध्यान में रमा कैसा मस्त जीवन है । जीवन में संयम की खप, मुख में नवकार का जप और आभ्यन्तर तप आपश्री का मुख्य ध्येय है।
आपश्री का आत्मबल, ज्ञानबल, चारित्रबल, तपोबल व मनोबल अपूर्व है।
परमपूज्या प्रवर्तिनी श्रीसज्जनश्रीजी म.सा० से मेरी नम्र प्रार्थना यही है कि आपश्री मुझे सदा शुभाशीष प्रदान करती रहें। जिससे मेरा मन संयम, तप व कर्तव्य के मार्ग से कभी विमुख न हो और मैं मोक्षमार्ग की ओर उन्मुख होकर शुद्ध संयम जीवन का पालन करती रहूँ। D प. शांतिचन्द जी जैन, न्यायतीर्थ, साहित्यरत्न, जैन सिद्धान्त शास्त्री, अजमेर (राज.)
__भगवान महावीर स्वामी ने उत्तम मानव जीवन को दुर्लभ बताते हुए उत्तराध्ययन सूत्र में फरमाया है
"चत्तारि परमंगाणी, दुल्लहाणिय जन्तुणो । माणुसत्तं, सुई सद्धा संजमम्मिय वीरियं" ।
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