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खण्ड १ | व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण
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0 श्री मदनलाल शर्मा जयपुर
(ग्रन्थ के सम्पादक सदस्य) झाँकता हूँ पल्लवावृत शाख के लघु द्वार से । ब्रह्माण्ड दिखता है मुझे इस धरा के द्वार से ।। पृथ्वी पर बैठा हुआ मैं स्वर्ग को अवलोकता हूँ। मिलता क्या स्वर्ग और भूलोक में यह सोचता हूँ। लोकमत जिनका हृदय से कर रहा है आज वन्दन । मानवी हो या कि मानव स्वर्ग का वह दूत पावन । मृत्तिका घट में भरे जो आत्मा के शील गुण ।
है वहीं निर्गुण प्रभु का अंश प्राणी में सगुण ।। जहाँ सात्त्विक वृत्तियों का प्रसार प्रभाव हो । स्नेह, प्रेम, अप्रमाद, अहिंसा एवं ज्ञानार्जन का प्रवाह जहाँ निरन्तर प्रवाहित हो । जहाँ चिन्तन ही चिन्तन हो तथा चिंता से मुक्ति का वातावरण हो स्वर्ग वहीं है, वहीं है, वहीं है । और, .
ऐसा व्यक्तित्व जो आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत हो । विनय एवं करुणा से जिसका हृदय परिपूर्ण हो । जो निर्लिप्त भाव से प्रकृतिस्थ हो कमलवत् संसार में रहकर संसार को ज्ञान सौरभ प्रदान कर रहा हो वही पुरुष या प्राणी अलौकिक है, स्तुत्य है, वन्दनीय है ? निर्गुणवादी कबीर ने भी ऐसे ही व्यक्तित्व को ईश्वर से अधिक महत्वपूर्ण मानकर कहा है
गुरु गोविन्द दोनों खड़े काके लागू पाय ।
बलिहारी गुरुदेव की गोविन्द दियो बताय ॥ ऐसे ही वातावरण और ऐसे ही व्यक्तित्व का सौभाग्य से साहचर्य प्राप्त हुआ। प्रवर्तिनी सज्जनश्री . जी म. सा. और उनकी शिष्या साध्वीवृन्द का ! वातावरण और व्यक्तित्व दोनों ही ने मेरे हृदय को अत्यन्त प्रभावित किया। प्रेरणा और क्रियाशीलता का ऐसा सामंजस्य यदा कदा ही देखने को मिलता है। उपाश्रय में जाते ही लगा कि “पवित्रता" शुभ्रवस्त्रावृता हो इन सौम्यगुणा साध्वी शरीरों में साकार रूप मे उतर आई है। सरलता और ज्ञानपिपासा तथा धर्मलाभ हेतु निरन्तर साधना यहाँ चह
ओर दृष्टिगत होती है। साध्वी एवं श्रावक मंडल अपने केन्द्र प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी के चारों ओर चिंतनार्थ, साधनार्थ एवं विचार विमर्शार्थ छाया रहता है ?
प्रवर्तिनी आगमज्ञा सज्जनश्री का ज्ञान असीम है। अस्तु उनके द्वारा किया गया समाधान हृदयस्पर्शी होता है। जैनदर्शन हो या कि सनातन मान्यतायें सभी पर आपका समान अधिकार है । अनेक आगम ग्रंथों का कई बार पारायण कर आप "आगमज्ञा" कहलाई हैं । देववाणी (संस्कृत) पर तो आपका पूर्ण अधिकार है। हिन्दी, गुजराती, प्राकृत, अंग्रेजी, राजस्थानी भाषा पर भी आपका अधिकार है। भावनामय जीवन है अतः जीवन में काव्यमयता का प्राधान्य है । आपने कई सरल गीतकाओं की रचना की है एवं अनेक दुरूह ग्रन्थों का सरल हिन्दी भाषा में अनुवाद किया है।
आपश्री की पट्ट शिष्या साध्वी श्री शशिप्रभाजी की धर्मशीलता, धर्म-संलग्नता एवं ज्ञान-सम्बोध, किसी भी कार्य के करने में जीवन्त क्रियाशीलता को देखकर ही पूजनोया गुरुवर्या सज्जनश्रीजी के
खण्ड १/२० Jain Education International
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