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आर्या सज्जनश्रीजी की काव्य-साधना
कवयित्री वीर प्रभु के चरणों में सर्वस्व न्यौछावर करने को उद्यत है :
एक बार जो नाथ निहालू, प्रेमाश्र नीर से चरण पखालू,
तन-मन-धन सब अर्पण कर दूं, प्रभु तब पद-पूजन में ॥१॥ कवयित्री पार्श्वनाथ से अनुनय-विनय करती है कि वे उसकी नैया को पार उतार दें। वह उनके दर्शन के लिए उत्कंठित है। उनका दर्शन चन्द्रमा की तरह शीतल और सूर्य की तरह अन्धकार को हटाने वाला है
तुम दर्शन है शरद् चन्द्रिका, शीतलता का झरना, रोग, शोक संताप मिटावे, जरा, जन्म और मरना । तुम दर्शन है ज्ञान दिवाकर, तिमिर हटावे मन का,
हो उद्योत ज्योति इक झलके, मिले सुफल जीवन का ॥१॥ कवयित्री पार्श्वनाथ के सौन्दर्य पर मुग्ध है :
मन मोहनगारा, पार्श्व जिनन्द लागे प्यारा, सांवरी सूरत लागे प्यारी, निरख मन मोद अपारा,
मन"""॥१॥ मस्तक मुकुट कर्ण कुण्डल द्वय, गल बिच मौक्तिक हारा,
मन "॥२॥ चिन्ताचूरन वांछापूरण, चिन्तामणि विरुद तुम्हारा,
मन"""॥३॥ नेमिनाथ के प्रति राजुल के माध्यम से कवयित्री ने अपने जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध जोड़ा है। पशुओं के क्रन्दन से पसीज कर नेमिनाथ तोरण मे लोट पड़ते हैं और संन्यस्त हो आत्म-साधना में लग जाते हैं। राजुल विरह-व्यथित हो उठती है
सखी ! सुन तू बात हमारी, विरहा जियरा जलाय,
जाऊँ मैं भी संग पिया के, उन बिन कुछ न सुहाय । वर्षा ऋतु में यह वियोग असह्य बन जाता है। जलधारा तीर-सी चुभती है। पपैया का पीऊपीऊ का स्वर हृदय को विदीर्ण करता है। कोयल की कुहू कुहू हृदय में हूक उठाती है। वह सखी से अनुनय-विनय करती है :
मुझे नेमि पिया से मिला दो सखी........ । नयन युगल यह प्यासे दरश के, इन्हें दर्शन नीर पिलादे सखी ।।१।। मैं दुखियारी पिया के विरह में, मरती हूँ मुझको जिला दे सखी ॥२॥ हाथ जोड़ तेरे पैंया पड़त हूँ, मेरे प्रियतम को दिखला दे सखी ॥३॥
कैसे मनाऊँ मैं रूठे पिया को, कोई ऐसी रीति सिखादे सखी ॥४॥ कवयित्री के लिये नेमिनाथ ही मन-मन्दिर के देव हैं। वह उन्हें उपालम्भ भी देती है। राजुल के माध्यम से विरहानुभूति का जो वर्णन है, वह कवयित्री की आध्यात्मिक भावलीनता का प्रतीक है ।
कवयित्री अपनी लघुता, कर्म-मलिनता और अपने आराध्य को महानता एवं वीतरागता का वर्णन कर अपनी शरण में लेने के लिये उनसे आत्म-निवेदन करती है :-- खण्ड १/२१
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