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खण्ड १ ! जीवन ज्योति
साथ ही इस बात का दुःख भी हुआ कि भारत के ही अन्य धर्मावलम्बी धर्मान्ध नरेशों ने जैनों पर इतने अत्याचार किये जिस प्रदेश में हमारे तीर्थंकर जन्मे, विचरे, ज्ञान का प्रकाश दिया, इसी भारत में हमारे धर्म का इतना पतन हो गया। अत्याचार तो बौद्धों पर भी हुए पर वे अन्य देशों में निकल गये, वहाँ अपना वर्चस्व स्थापित किया, लाखों-करोड़ों अनुयायी बनाए, किन्तु जैन तो पिछड़े ही रह गये और इसके अनेक ऐतिहासिक कारणों पर गुरुवर्याजी ने कई बार प्रकाश डाला।
बौद्ध गया से प्रस्थान करके नेशनल हाईवे पर चलते हुए बनारस, इलाहाबाद (पुरिमतालजहाँ भगवान ऋषभदेव को केवलज्ञान हुआ था), कानपुर (जहाँ काँच का दर्शनीय मन्दिर है) शौरीपुर (भगवान नेमिनाथ की जन्मभूमि) होते हुए आगरा आये । ८-१० दिन रुके। व्याख्यान पजाओं आदि का ठाठ रहा । सभो मन्दिरों के दर्शन किये।
___ 'श्वेताम्बर जैन' पत्र के संस्थापक-संपादक श्री जवाहरलालजी लोढ़ा के अति आग्रह से जयपुर हाउस स्थित नवीन बंगले पर गये । यहाँ उन्होंने दादा गुरुदेव पूजा व व्याख्यान का कार्यक्रम रखा था । समीपस्थ दादावाड़ी व सेठ के बाग के मन्दिर के दर्शन करके पुनः बंगले में आ गये ।
_ दूसरे दिन विहार कर दिया। चैत्र बदी २ को जयपुर पहुँचे। वहाँ पूज्य प्रवर श्री साम्यानन्द जी म एवं व्याख्यान वाचस्पति श्री जयानन्दजी म० की निश्रा में लगभग १५० श्रावक-श्रादिका उपधान तप कर रहे थे । चैत्र शुक्ला ५ को मालारोपण का शुभ मुहूर्त था । अतः पूज्य प्रवर के आदेश से १५ दिन वहीं रुके।
पूज्य गुरुवर्याश्री से तत्वरसिक श्रावक-श्राविका एक-डेढ़ घण्टे तक नित्य तत्वचर्चा करते थे । हम भी वहीं बैठते थे।
यद्यपि आज का युग भोगवाद का है । शिक्षा भी अर्थार्जन लक्ष्यी है। शिक्षितवर्ग भारतीय वेश-भूषा, खान-पान, आचार-विचार के प्रति हेय दृष्टि रखता है। धर्मक्रियाएँ भी आडम्बर और दिखावा मात्र रह गई हैं। इन्हें धर्मक्रिया न कहकर धार्मिक परेड कहना अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। फिर भी इस भौतिकताप्रधान युग में भी कुछ तत्त्वरसिक श्रावक-श्राविका हैं, वे ही गुरुवर्याश्री से तत्वचर्चा करते थे।
इस प्रकार १५ दिन बीत गये । अष्टान्हिका महोत्सवपूर्वक मालारोपण का कार्यक्रम हुआ। उसी दिन गुरुदेव के बाहरी कक्ष में योगीराज श्री शांतिविजयजी म० की मूर्ति स्थापना का कार्यक्रम भी समारोहपूर्वक संपन्न हुआ।
हम शहर में आ गये । शाश्वत नवपद ओली, महावीर जयन्ती तथा चैत्री पूर्णिमा पर्यों की आराधना की।
वैशाख महीने में जैन कोकिला पू० श्री विचक्षणश्रीजी म.सा० आदि सर्व दिल्ली से पधार गये थे।
चातुर्मास समीप होने से अनेक क्षेत्रों की चातुर्मास हेतु विनतियाँ आ रही थीं। अजमेर संघ का आग्रह अत्यधिक था। किन्तु इस बार पू० प्रवर्तिनीजी की इच्छा पू० गुरुवर्या का चातुर्मास अपने साथ ही कराने की थी। अतः जैन कोकिलाजी ने सबको मधुर स्वर से इन्कार कर दिया। किन्तु अजमेर संघ का आग्रह अन्त तक रहा । उस वक्त तक तपागच्छ और खरतरगच्छ में कोई भेदभाव नहीं था। अतः संघ खण्ड १/६
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