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पूज्य प्रवर्तिनी श्रीजी के संसारपक्षीय सहोदर बन्धु
श्री केशरीचन्दजी लूनिया
पिताजी श्री केशरीचन्दजी लूनिया का जन्म सन् १९१५ में हुआ। आपके पिताश्री श्रेष्ठ श्रावक प्रसिद्ध जौहरी सेठ गुलाबचन्दजी लूणिया थे, तथा माता का नाम महताब कुंवर था । १४ वर्ष की अल्पायु में ही जवाहरात के व्यवसाय में रुचि लेना शुरू कर दिया था। वे कलकत्ता में १९४०-१९५६ तक रहे और कलकत्ता के ग्रांड होटल और ग्रेट ईस्टर्न होटल में सफलता पूर्वक जवाहरात का शोरूम चलाया।
१९५७ में जयपुर के रामबाग पैलेस होटल में "एस गुलाबचंद लूनिया एण्ड कं०" के नाम से शोरूम खोला जो कि आज भी सफलता पूर्वक चल रहा है । द्वितीय महायुद्ध के बाद पिताजी व्यापारार्थ संघाई चीन] गये थे । जमनालालजी बजाज की अध्यक्षता में प्रजामंडल का जयपुर में अधिवेशन हुआ उसमें आप एक नवयुवक नेता के रूप में सम्मिलित हुये और कार्य किया।
__ स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् जयपुर में १६४८ में पहली बार कांग्रेस का अधिवेशन हआ उसमें भी सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में भाग लिया।
. अन्त समय तक नमस्कार मन्त्र का जाप-मेरे पिताश्री अत्यन्त ही विनोदी, मिलनसार और व्यवसायी बुद्धि के व्यक्ति होते हुए भी विज्ञान, दर्शन, कला आदि गंभीर विषयों के भी ज्ञाता थे। अंतिम दिनों में बीमारी के दौरान भी जरा सी भी तबियत ठीक होती तो कहते "चलो पन्ना हम रामबाम चलकर आते हैं।" जब भी कभी मेरी कोई भाभी आती तो कहते ढाले और भजन सुनते । हमेशा टेप रिकार्ड पर आचार्यश्री तुलसी व अन्य विद्वान साधु-साध्वियों के भजन आदि सूना करते थे।
बीमारी के दौरान हमेशा ही “अरिहंता को शरणों सिद्धाको सरणों" आदि शब्दों का उच्चारण किया करते थे। जब डॉक्टरों ने उन्हें इलाज हेतु विदेश जाने की सलाह दी तब उस जून की भीषण गर्मी एवं इतनी अस्वस्थता के बावजूद भी उन्होंने कहा-पहले मैं गुरुदेव (आचार्यश्री तुलसी) के दर्शन करूंगा फिर उनसे निर्देश प्राप्त करके ही कहीं जाऊंगा। वे लेटे-लेटे ही गाड़ी में दिल्ली चले गये और उनके दर्शन किये।
पिताश्री कष्ट और अपार शारीरिक वेदना में हमेशा ही प्रसन्नचित रहते और नमस्कार महामंत्र बोलते रहते थे । मृत्यु के करीब डेढ़ महीने पहले ही उन्हें पूर्वाभास हो गया था और कहते थे अब मेरा समय निकट आ गया है “खमत खामणा है सभी लोगों से।
एक बार साध्वी जी दर्शन देने पधारी तो मंगल पाठ सुनाने के बाद फरमाने लगी “सेठा अब काय की इच्छा है" तो आप कहने लगे “महाराज अब तो मेरी किसी चीज की भी इच्छा नहीं है सिर्फ चाहता हूँ कि पंडित मरण आवे।"
पिताजी का जीवन हमेशा कीचड़ में कमल की भाँति निर्लिप्त रहा, राग द्वष किसी से भी नहीं था। किसी से भी कहा-सुनी होने पर भी कभी गाँठ नहीं बाँधते । दस मिनट बाद ही वह पहले जैसे हो जाते जैसे कुछ हआ ही न हो । उनका पूरा जीवन ऋजुता, क्षमा और सहनशीलता, दृढ़ निश्चय और आत्म विश्वास से पूर्ण था।
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