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खण्ड १ | जीवन ज्योति
मिलता है । आपको कई देशी राग-रागनियों का अच्छा ज्ञान था । आपने लोकप्रिय राग-रागनियों के आधार पर कई भजनों की रचना की । आज भी सेठ साहब के समय के लोग, मित्रजन, श्रावक उनके भजनों को गाते हैं और इस भक्त हृदय की संगति का स्मरण कर आत्मविभोर हो उठते हैं । आपके भजनों का संचय (केसेट) भी तैयार किया गया है, जिसे सुनकर हर व्यक्ति स्वयं अनुभव कर लेता है कि सेठ श्री गुलाबचन्दजी वस्तुतः ऐसे महकते हुए गुलाब थे जिनमें भक्ति-संगीत और काव्य-मर्मज्ञता की सुरभि पूर्णतः व्याप्त थी । निःसंदेह, इस सौरभ ने लूणिया परिवार, सम्पूर्ण जैन समाज और उनके स्वयं के जीवन को एक समुज्ज्वल धर्मभावना से आवेष्टित बनाये रखा था और आज भी वह सौरभ श्री सज्जनश्रीजी म. सा. के माध्यम से उसी गरिमा के साथ दिग-दिगन्त में व्याप्त है।
युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ ने श्री गुलाबचन्दजी लूणिया के विषय में कहा है कि श्री गुलाबचन्द जी प्रथम श्रावक थे जिन्होंने भक्ति-भाव पूर्ण ढालें, गीतिकाएँ, स्तवन आदि की रचनाएँ की और भक्तिभाव से विभोर हो उनको स्वयं गाया भी । श्री गुलाबचन्द जी लूणिया व श्री सुजानमल जी खाटेड की गायन युगल जोड़ी पूर्ण जैन समाज में प्रसिद्ध थी। ग्रन्थ प्रकाशन एवं धर्मभावना
धार्मिक समारोह, आध्यात्मिक जागरण एवं तत्वचर्चाओं में भाग लेने के साथ-साथ श्री गुलाबचन्द जी लूणिया ने अनेक स्वरचित व अन्य ग्रन्थों का प्रकाशन करवाया। उनके द्वारा रचित/प्रकाशित अनेक पुस्तकें उस समय जैन-तत्व दर्शन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण मानी जाती थीं। अनेक श्रावक-श्राविकाओं
और साधु-साध्वियों ने इन ग्रन्थों से जैन तत्वों की जानकारी प्राप्त की। आज भी इन ग्रन्थों को जैनतत्व दर्शन के प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है। श्री गुलाबचन्दजी साहब के धर्मग्रन्थ जिनकी रचना आपने ही की थी, निम्नलिखित हैं
१. भिक्षुयश रसायन २. नव पदार्थ निर्णय ३. श्रावक धर्म विचार ४. शिशुहित शिक्षा ५. श्रावक आराधना ६. सुगणावली ७. प्रश्नोत्तर तत्वलोक ।
श्री लूणियाजी के ग्रन्थ प्रकाशन कार्य में सबसे अधिक सहयोग मिला था उनके अनन्य मित्र सहयोगी एवं सहधर्मी श्री हीरालालजी आंचलिया का। श्री आंचलियाजी भी लूणियाजी की तरह जैन शासन के भक्त-श्रावक रहे हैं । वे प्रथम श्रावक हुए हैं जिन्होंने धार्मिक ग्रन्थों का शुद्धिकरण करवाया, उन्हें छपवाया और धर्मचेतना जाग्रत करने हेतु निःशुल्क वितरण करवाया।
श्री आंचलियाजी गंगाशहर (बीकानेर) रहते थे। किन्तु ग्रन्थ प्रकाशन के कार्य हेतु प्रायः जयपुर आया करते थे और श्री गुलाबचन्दजी लूणिया के यहाँ ही ठहरा करते थे। दोनों ही दृढ़ श्रद्धायुक्त भक्त थे जिन्होंने जैन ग्रन्थों के प्रकाशन, वितरण एवं प्रभावना की दृष्टि से ऐतिहासिक योगदान किया था ।
श्री गुलाबचन्दजी का स्वच्छ-रुचि सादे परिधानयुक्त सरल आध्यात्मिक हृदय वाला आकर्षक व्यक्तित्व था। वह भावपूर्ण, कला-मर्मज्ञ हृदय, उदार किन्तु उत्तरदायित्वपूर्ण गृहस्थ श्रावक, कुशल किन्तु स्वार्थरहित व्यवसायी थे। अपने पीछे दो पुत्र, दो पुत्रियों तथा यश-मान, कीर्ति, धर्म-प्रभावना, वैभव, प्रतिष्ठा और अनेक स्मरणीय एवं अनुकरणीय कृतियाँ छोड़कर उनकी दिव्यआत्मा अकस्मात् ही हृदय गति रुक जाने से वि० सं० १६६६ के माघ शुक्ला २ की रात्रि को ८ बजे स्वर्गलोक में प्रयाण कर गई। आज भी उनके भजन-गीत, ढालें-स्तवन और अनेक ग्रन्थ उनकी स्मति को अमर बनाये हुए हैं । आज भी वे अपनी सम्पूर्ण जीवंतता के साथ जीवित हैं। उन्हीं की एक सुपुत्री है स्वनामधन्या महान साध्वीरत्न प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी म. सा. जिनका अभिनन्दन करते हुए हम उस अमर आत्मा के प्रति श्रद्धावन्त हैं।
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