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खण्ड १ | जीवन ज्योति में स्थित छोटी-सी धर्मशाला में पधार गये । वहाँ पूज्य गुरुदेव ने अट्ठम तप के साथ तीन दिन तक मौन आराधना, जप-ध्यान किये।
__ कलकत्ते से कई अग्रगण्य श्रावक एवं राजगृह के व्यवस्थापक श्रीमान जयन्तीलालजी सा० आदि आपके स्वागतार्थ राजगृह के तीसरे पहाड़ में आ गये । खूब ठाठ से राजगृह में प्रवेश हुआ। बड़ी धर्मशाला के सामने एक प्राइवेट बंगले में गुरुदेव रुके । तेरापंथी मुनि रूपचन्दजी भी बगल (बाजू) में एक सुव्यवस्थित स्थान में रुके । हम लोग उनसे मिलने और विहार-सम्बन्धी सुख-पृच्छा करने गये । सौहार्दपूर्ण वातावरण रहा।
अनुयोगाचार्यजी भी दोनों मुनिराजों से मिले तथा पच्चीसवीं शताब्दी निर्वाणोत्सव में पधारने का आग्रह किया । ऐसा ही आग्रह साध्वी सुमतिकुवरजी एवं चन्दनाजी से भी किया। जिसे सभी ने स्वीकार कर लिया।
पज्य गरुदेव कान्तिसागरजी ने और हम लोगों ने कच्चे शार्टकट से पावापुरी की ओर विहार किया । पावापुरी से १-२ किलोमीटर पहले स्वागतार्थ आये श्रावकों ने धूमधाम से प्रवेश कराया।
__ यद्यपि पावापुरी में जैन घर नहीं है, किन्तु इस विशाल आयोजन और साधु-साध्वियों के चातूमर्मास के समाचार प्रसारित होते ही अनेक जैन बन्धु कलकत्ता, विहार शरीफ, पटना, भागलपुर, बीकानेर आदि स्थानों से चातुर्मासकाल के लिए आ गये पावापुरी में । यो ३०-४० चौके हो गये।
जैन चौका
जैन चौका मात्र वह स्थान ही नहीं, जहाँ भोजन बनता है । चौका का रहस्य है-चार प्रकार की शुद्धियाँ । द्रव्य शुद्धि, क्षेत्र शुद्धि, काल शुद्धि और भावशुद्धि ।
द्रव्यशुद्धि का अर्थ भोजन तैयार करने वाली और जो द्रव्य, अन्न आदि हैं, वे सब शुद्ध हों। क्षेत्रशुद्धि में भोजन बनाये जाने वाले स्थान की स्वच्छता निहित है । कालशुद्धि का अभिप्राय भोजन की वेला का विचार रखना है और भावशुद्धि में भोजन बनाने वाले के भाव-चित्तवृत्तियाँ शुभ हों, शुद्ध हों, उदार हों, मन में यह भावना हो कि कोई त्यागी तपस्वी साध्वी-सन्त मेरे बनाये भोजन में से कुछ आहार ग्रहण कर लें तो मैं कृतार्थ हो जाऊँ, मेरा जीवन धन्य हो जाय, मेरा यह चौका पवित्र हो जाय ।
इन चारों प्रकार की शुद्धियों से शुद्ध चौका ही जैन चौका कहलाने योग्य है। ऐसे चौके पावापुरी में उस समय लगभग ३०-४० थे।
नूतन दीक्षिताओं भगिनियों की बड़ी दीक्षा श्रद्धय गुरुदेव की निश्रा में आषाढ़ शुक्ला १२ के दिन सानन्द सम्पन्न हुई । इस दीक्षा में दीक्षिताओं के माता-पिता भी सम्मिलित हुए।
श्रद्धय गुरुदेव के आदेश से पूज्य गुरुवर्याश्री ने भ० महावीर की प्रथम देशना के स्थान पर प्रथम प्रहर में श्री आचारांग सूत्र और मध्यान्ह में भगवान की अन्तिम देशना उत्तराध्ययन सूत्र का वांचन शुरू किया जिसे श्रावक-श्राविका तथा बाहर से आये हुए सभी व्यक्ति सुनते थे।
इस भूमि का कण-कण भगवान महावीर से स्पशित है। अतः इसका विशेष महत्व है । हम सभी का तन-मन श्रद्धा में अभिसिंचित हो रहा था।
श्रद्धेय अनुयोगाचार्यजी के आदेश से गहवर्याधी ने बाल मुनि मणिप्रभसागरजी म० को चातु
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