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सेठ श्री गुलाबचन्दजी लूणिया
दीक्षा ग्रहण की तैयारी :
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अनेक आध्यात्मिक गुणों से युक्त वालक गुलाबचन्द जी का मन प्रायः दीक्षा के लिए लालायित रहने लगा । उनकी इस महती आकांक्षा को परिजनों ने भाँप लिया और हर सम्भव उपाय से वे उनका मानस बदलने का प्रयत्न करने लगे अतः १४ वर्ष की आयु में ही उनका विवाह यह विचारकर कर दिया गया कि गृहस्थी का भार वहन करने से दीक्षा लेने का भाव स्वतः ही तिरोहित हो जायेगा । श्री गुलाबचन्द दीक्षा तो नहीं ले पाये, किन्तु गृहस्थी में रहकर भी उन्होंने अग्रणी और पूर्ण धर्माचरणयुक्त श्र ेष्ठ श्रावक के रूप में ख्याति अर्जित की । सन्त- मुनिराज भी अपने प्रवचनों में श्री गुलाबचन्द जी के -कारे (तहत्ति) का ध्यान रखते थे, क्योंकि वे स्वाध्यायी थे, चिंतक थे और धर्म - आख्यानों का उन्हें विशुद्ध ज्ञान था, अतः उनका 'हूँ-कारा' आना प्रवचनकर्ताओं की सफलता का कारण बन जाता था । विवाह एवं गृहस्थ
जीवन
श्रावक सेठ श्री गुलाबचन्दजी का विवाह भोपाल रियासत के खंजाची श्री चुन्नीलालजी कोठ्यारी एवं श्रीमती जतनकुमारीजी को सुपुत्री महताबकुमारी के साथ हुआ था । श्रीमती महताब - कुमारी गृहकार्य में दक्ष, सुशील, व्रत-नियमों में आस्थाशील सदाचारिणी महिला थीं । वे अत्यन्त धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। ऐसी सहधर्मिणी मिलने से सोने में सुहागा वाली कहावत चरितार्थ हो गई । युवावस्था में पति-पत्नी ने तेरापंथ के अष्टम आचार्य श्री कालूगणी से बारह व्रत धारण कर लिये थे । धर्माचरण सामायिक और व्रत - पचखाण के साथ दोनों ने गार्हस्थ्य जीवन की यात्रा आरम्भ की।
कुछ काल उपरान्त श्री गुलाबचन्दजी के पिताश्री और श्री चौथमलजी का स्वर्गवास हो गया । गृहस्थी का सम्पूर्ण भार श्री गुलाबचन्दजी तथा भाई तेजकरण जी पर आ पड़ा । किन्तु विधि के विधान श्री गुलाबचन्दजी को ही सारे उतरदायित्वों को वहन करवाने की योजना थी, अतः कुछ कालोपरांत भाई तेजकरण जी भी निःसन्तान ही इस संसार से विदा हो गये । अब सारे परिवार का भार श्री गुलाब चन्दजी पर ही आ पड़ा। आपने पूरी ईमानदारी तथा कठिन परिश्रम से इस उत्तरदायित्व को निभाया । संसारी रहे, किन्तु मन को संसार में नहीं रमाया, धर्म से अलग नहीं होने दिया । उन्होंने व्यापार और धर्मनिष्ठा में समान रूप से प्रगति की और दोनों ही क्षेत्रों में अच्छा नाम कमाया । सांसारिक उत्तरदायित्वों को निभाते हुए भी वे उससे मोहग्रस्त नहीं हुए, धन-वैभव अर्जित किया । और संसार में रहकर भी कमल की भाँति निर्लिप्त रहे ।
पारिवारिक वैभव :
सेठ श्री गुलाबचन्दजी के दो पुत्र एवं दो पुत्रियाँ हुईं ।
वर्तमान में जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ की प्रवर्तिनी सज्जन श्री जी का जन्म १६ मई १९०८ को हुआ । बाल्यकाल में आपको सभी स्नेहवश 'गपजी' कहकर पुकारते थे । पिताश्री का आप पर अत्यन्त स्नेह था । वे इन्हें अपना पुत्र ही मानते थे । और धार्मिक क्रियाकलाप हो या सामाजिक समारोह, सब में आपको अपने साथ ही रखते थे । यह बात निर्विवाद सत्य है कि प्रवर्तिनी जी में धार्मिक संस्कारों का प्रस्फुटन अपने पिताश्री की प्रेरणा से ही हुआ, फिर भी आप में पूर्वजन्मों के धार्मिक संस्कारों का बीज भी अवश्य रहा है, अन्यथा यह धर्मपौध इतनी कम आयु ही में थोड़ी सी प्रेरणा पाकर ही कैसे प्रस्फुटित कैसे होता ? सज्जन श्रीजी का विवाह बाल्यकाल में ही १२ वर्ष आयु में जयपुर के प्रसिद्ध दीवान श्री नथमलजी गोलेछा के सुपुत्र श्री कल्याणमल जी से हुआ । विवाह बहुत धूमधाम
से सम्पन्न हुआ ।
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