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धर्मनिष्ठ तत्वज्ञ श्रावक सेठ श्रीगुलाबचन्दजी लूणिया
धन का बिरवा परिश्रम का जल चढ़ाने से सहज ही बढ़ने लगता है। यश एवं कीर्ति का क्षेत्र भी पारस्परिक सम्पर्क, दानशीलता, सेवा-सहयोग, मृदु व्यवहार एवं मित्रभाव का पुट देकर जिस गति से चाहे बढ़ाया जा सकता है। किन्तु धर्म की बेल यूँ सहज ही फलीभूत नहीं होती । पूर्व संस्कारों का पवित्र जल इसमें सींचना होता है । पीढ़ी दर पीढ़ी धर्मनिष्ठ पूर्वजों की आस्था का पोषण इस बेल को देना पड़ता है। दैनन्दिन क्रिया कर्म, नियमित उपासना, तप और साधना के साथ-साथ लोक-व्यवहार, वृत्तिव्यवहार, घर-परिवार सभी क्षेत्रों में धर्मपरायणता का निर्वाह करना होता है। अनेकानेक भौतिक एवं मनोकायिक भूचालों से धर्म-बेल की रक्षा करनी होती है, तभी यह अमृत तुल्य फल प्रदान करती है, तभी परिवार में धार्मिक संस्कारों से युक्त संतानों का प्रादुर्भाव होता है ।
ऐसा ही सुयोग मिला था धर्मनिष्ठ तत्वज्ञ श्रावक सेठ श्रीगुलाबचन्दजी लूणिया को। उनके पूर्वज ११वीं शताब्दी में मुलतान राज्य में व्यापार करते थे। उनमें सबसे ख्यातनामा थे श्री धींगरमल शाह (मूदड़ा) जो कि मुलतान राज्य में प्रधानमन्त्री के सम्मानित पद पर आसीन थे। उनके एक पुत्र लूणाशाह थे, जिनको एक बार सर्प ने डंस लिया । दैवयोग से उस समय वहाँ जैन मुनि श्रीगुरुजिनदत्तसूरि जी का आगमन हुआ। आप बड़े दादा गुरु के नाम से विख्यात थे। उन्होंने अपने मंत्रबल से लूणाजी शाह का सर्प विष उतार कर उन्हें स्वस्थ कर दिया । श्री धींगरमलजी इस चमत्कार से अत्यन्त प्रभावित हुए और उन्होंने जैन धर्म स्वीकार कर लिया । सन् १९९२ में आचार्य महाराज ने उनके पुत्र लूणाशाह के नाम पर ओसवाल जाति में “लुणिया" गोत्र प्रदान किया। गोत्र का शुभारभ उनसे ही हुआ।
__ श्री धींगरमल जी शाह का परिवार मुलतान में यवनों का शासन हो जाने तथा अकाल की स्थिति बन जाने के कारण मुलतान छोड़कर जैसलमेर में आ बसे । जहाँ यह परिवार १७ वीं शताब्दी तक रहा । जैसलमेर में व्यापार की अधिक प्रगति होती नहीं देखकर शाह जी दिल्ली में आकर बसे ।
दिल्ली से से लूणिया परिवार जयपूर आ गया तथा व्यापार दिल्ली व जयपूर दोनों स्थानों पर करते रहे । श्रीछबीलचन्दजी के सुपुत्र का नाम था गोरूमल जी; उनके दो पुत्र थे-एक श्रीचौथमलजी तथा दूसरे श्रीगणेशमलजी।
__ यह वह समय था जब महाराज जयसिंह ने जयपुर नगर बसाया था और अन्य प्रान्तों के विद्वानों, व्यापारियों, धार्मिक महापुरुषों और कलामर्मज्ञों को जयपुर में आकर बसने का आह्वान किया था। श्रीगोरूमलजी को भी महाराजा जयसिंह द्वारा आमंत्रण मिला और वो भी जयपुर आकर व्यापार करने लगे । उन्होंने जवाहरात के व्यवसाय में अच्छी ख्याति अर्जित की, तथा "गौरूमल चौथमल" नाम से एक फर्म की स्थापना की व कुन्दीगर के भैरूजी के रास्ते में एक हवेली बनवाई। जहाँ आज भी लूनिया परिवार रहता है।
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