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प्रवर्तिनीश्री सज्जनश्रीजी म. सा. के यशस्वी चातुर्मास
प्रवर्तिनीश्री सज्जनश्रीजी ने अपने अब तक के ४८ वर्षीय साधना काल में कुल ४७ चातुर्मास किये हैं जिनमें से २६ तो जयपुर शहर में ही सम्पन्न हुए हैं। इनमें से दस तो लगातार १६५८ से १९६७ तक ही हुए हैं। इसका मुख्य कारण गुरुसेवा की भावना रही है । इतना होने पर भी उनका किसी स्थान विशेष से कोई लगाव नहीं है। निरपेक्ष भाव से जहाँ भी चातुर्मास हो जाता है, वे कर लेती हैं। जयपुर में उनके इतने चातुर्मास हो जाना संयोग मात्र ही है, यद्यपि वह उनकी जन्मभूमि होने के साथ दीक्षा भूमि भी है।
उन्होंने सात चातुर्मास राजस्थान के बाहर किये हैं जो पूर्व में कलकत्ता से लेकर पश्चिम में जामनगर तक हुए हैं। राजस्थान से बाहर उनका प्रथम चातुर्मास भारत की राजधानी दिल्ली में सन् १९७० में हुआ था। उससे अगला चातुर्मास उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में और तीसरा पश्चिमी बंगाल की राजधानी कलकत्ता में सम्पन्न हुआ। यूं कलकत्ता में उनके दो चातुर्मास हो चुके हैं।
उन्हें कलकत्ता के तुरन्त बाद ही तीर्थंकर महावीर के निर्वाण से पावन और धन्य वनी पाबापुरी में १६७४ में चातुर्मास करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पावापुरी चातुर्मास के दो वर्ष बाद उन्हें मन्दिरों की नगरी के नाम से विश्वविख्यात तीर्थराज शत्रुजय की तलहटी में बसे पालीताणा नगर में चातुर्मास करने का सुयोग प्राप्त हुआ। यह सन् १९७६ की बात है। पदयात्रा करते हुए एक साध्वी का देश के पूर्वी छोर से दो वर्ष के भीतर पश्चिमी छोर तक पहुँच जाना कम महत्व की बात नहीं है । उनका अगला चातुर्मास सौराष्ट्र के प्रसिद्ध नगर जामनगर में हुआ। इस तरह राजस्थान के अतिरिक्त उनके चातुर्मास दिल्ली सहित पाँच राज्यों में सम्पन्न हो चुके हैं। ये राज्य हैं : उत्तरप्रदेश, बिहार, पश्चिमी बंगाल और गुजरात।
दिल्ली जाने से पूर्व उन्होंने अपनी गुरुवर्या ज्ञानश्रीजी की जन्मभूमि फलोदी (जिला जोधपुर) में १९६९ में चातुर्मास किया था । फलोदी इस मामले में सौभाग्यशाली रही । इस महान् साध्वी ने दीक्षित होने के बाद दूसरा चातुर्मास भी फलोदी में ही किया था। वह सन् १९४३ की बात है। उस समय ज्ञानश्रीजी विद्यमान थीं। दोनों चातुर्मासों में पूरे २६ वर्ष का अन्तर रहा। यह एक संयोग ही है कि उनकी प्रथम और प्रधान शिष्या शशिप्रभाश्रीजी की जन्मभूमि में भी यही फलोदी है। फलोदी और कलकत्ता के अतिरिक्त मरुधरा का सिवाना ही एकमात्र ऐसा नगर है जहाँ सज्जनश्रीजी ने दो चातुमसि किये । यह कैसा विचित्र संयोग है कि जिन चार स्थानों पर उनके एक से अधिक चातुर्मास हुए
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