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खण्ड १ | जीवन ज्योति
गिरिडीह होते हुए भ. महावीर के कैवल्यप्राप्ति स्थल ऋजुबालुका तट पर स्थित बराकड़ तीर्थ पहुँचे । केवलज्ञान भूमि के दर्शन किये । फिर सम्मेत शिखर की उपत्यका (तलहटी) में स्थित मधुवन में प्रवेश किया।
प्रथम बार गिरिराज के दर्शन करके पूज्या गुरुवर्या जी (और हम सब भी) बहुत आनन्दित हो रही थीं। हर्ष ऐसा जैसे जन्म-जन्म की साध पूरी हो गई हो।
तीर्थ के मुख्य द्वार के पास ही तीर्थाधिष्ठायक भौमियाजी की बड़ी, भव्य, विशाल और तेजस्वी मूर्ति है । मन्दिर भी बड़ा कलात्मक और मनोहारी है। आगे बड़ी विशाल थर्मशाला है । वहाँ योग्य, व्यवस्थित स्थान देखकर हम लोगों ने विश्राम किया।
तीर्थाधिनायक भ० पार्श्वनाथ की भव्य प्रतिमा के दर्शनकर हृदय आनन्दित हो गया । पश्चात दादावाड़ी में गुरुदेव को वन्दन नमस्कार किया। समीप ही श्रद्धय कवि सम्राट के शिष्य कल्याणसागरजी म. सा. विराजमान थे, उनके दर्शन किये । आप शिखरजी की नव्वाणु यात्रा कर रहे थे।
शिखरजी जैनधर्म में तीर्थराज कहलाता है । इस पावन भूमि से २० तीर्थंकर मोक्ष पधारे हैं। अन्य कितने साधक-मुनिराजों ने मुक्ति प्राप्त की है, इसकी तो गणना ही नहीं; असंख्य जीव मुक्त हुए हैं, इस पर्वत से । इसीलिए इस पर्वत के कंकड़-कंकड़ के प्रति भक्ति भावना उमड़ती है । हमने यात्रा शुरू की।
शिखर तक की ६ माईल की चढ़ाई है। यात्रा के प्रथम चरण में ही 'सीतानाला' आता है। यहाँ यात्रा करके लौटने वाले यात्रियों को नाश्ता दिया जाता है । इसके पश्चात् कुछ आगे बढ़ने पर गंधर्व नाला आता है । यहाँ से और चढ़ाई शुरू हो जाती है। यह तीन माइल की एकदम खड़ी चढ़ाई है। इसे पूर्ण कर सर्वप्रथम गणधर गौतम स्वामी को टुंक (टोंक) है। अनेक लब्धियों के धारी, चतुर्दश पूर्वधर, भगवान महावीर के पट्ट शिष्य-गौतम स्वामी, उनकी टुंक के दर्शन करके चित्त उनके गुणों में रमण करने लगा।
अन्य तीर्थंकरों के ठेकों के दर्शन करते हुए जलमन्दिर पहुँचे। बीच में मन्दिर और चारों ओर जल बड़ा सुहावना, अद्भुत दृश्य है। पर्वतमाला में चारों ओर टुंक ही टुंक दृष्टिगोचर होती हैं । एक पर चढ़े, उससे उतरे, फिर दूसरी पर चढे बड़ा आनन्द आया। अन्तिम टंक भ० पार्श्वनाथ की टंक पर पहुंचे । यह सबसे ऊँची है। भावपूर्वक दर्शन किये । चित्त में उल्लास समा नहीं रहा था। पीछे से उतरे । बड़ी विषम उतराई है । कई स्थानों पर तो सिर्फ दो ही आदमी चल सकते इतना ही रास्ता है। एक ओर ऊंचा पहाड़, दूसरी ओर गहरी खाई । जरा-सी असावधानी हुई कि हजारों फीट नीचे, हड्डी पसली भी न बचे । पर तीर्थराज का कैसा प्रभाव ! आज तक कोई दुर्घटना कभी हुई हो, ऐसा हमने नहीं सुना । हजारों भक्त यात्रा करते हैं और सभी सकुशल, उल्लसित मन लौटते हैं । हम लोग भी लौटे, मन उल्लास से भरा हुआ था । धर्मशाला पहुँचे । होली पर्व बहुत ही आनन्द, उल्लास और आध्यात्मिक रूप में मनाया।
पूज्य कल्याणसागरजी म. सा. की नब्वाणु यात्रा चैत्र शुक्ला पूर्णिमा को पूर्ण हो रही थीं। उन्होंने हम लोगों को रुकने का आग्रह किया । हम रुक गये । शाश्वती ओली की आराधना और महावीर जयन्ती पर्व गिरिराज की छत्रछाया में बड़े आनन्द से मनाया।
जिस तरह सुमन की सौरभ स्वयं ही पवन के झकोरों के साथ चारों ओर फैल जाती है, इसी प्रकार गुरुवर्याश्री का सम्मेतशिखर आगमन भी कलकत्ता संघ को मालूम हो गया। वहाँ के मुख्य
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