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[ जीवन ज्योति: साध्वी शशिप्रभाश्रीजी
विहार यात्रा में पूज्याश्री का उत्साह गजब का रहा । ६५ वर्ष की आयु फिर भी युवाओं जैसी स्फूर्ति । तीर्थों के दर्शन-वन्दन करते-करते आत्मविभोर बन जातीं । उत्साह इतना कि लम्बी-लम्बी यात्राएँ करने पर भी नाममात्र को थकान नहीं, मुख पर सदा प्रसन्नता के दर्शन होते ।
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यहाँ से चम्पापुरी की ओर विहार किया । मार्ग में शैवों की तीर्थ नगरी वैद्यनाथ पड़ा । यहाँ कामना पूर्ति के बाद भक्तजन दण्डवत् यात्रा करते हैं । हमने भी देखा ।
चम्पापुरी - यह बारहवें तीर्थंकर भगवान वासुपूज्य की पंचकल्याणक स्थली है । सम्राट श्रेणिक की मृत्यु के बाद अजातशत्रु ने चम्पा को अपनी राजधानी बनाया । भ० महावीर की ३६००० श्रमणियों की नायिका सती चन्दनबाला भी यहीं की राजकुमारी थी । कच्चे सूत और चलनी से जल निकालकर शीलधर्म की जयपताका फहराने वाली सती सुभद्रा भी यहीं की है। इस प्रकार इस नगरी से कई ऐतिहासिक, पौराणिक प्रेरक घटनाएँ जुड़ी हैं ।
अत्यन्त सुन्दर जिनालय और समीपस्थ सुव्यवस्थित धर्मशाला है । जिनालय में भगवान दासुपूज्य की मनोरम मूर्ति के भावपूर्वक दर्शन किये ।
निकट स्थित नाथनगर पहुँचे । वहाँ बाबू रायकुमारसिंह जी की हवेली में रुके ! ऊपर ही जिनमन्दिर था ।
श्री रायकुमारसिंह जी की धर्मपत्नी सज्जनबाई सा. जयपुर के भांडिया परिवार की लड़की हैं। और बाल-सहेली हैं पूज्या गुरुवर्या श्री की, जो बारह व्रतधारी श्राविका हैं । हमारे अप्रत्याशित आगमन को जानकर हर्ष से भर गईं। उनके आग्रह से दो-तीन दिन रुके। हमें फाल्गुन चौमासा - होली पर्व - प शिखरजी पहुँचना था अतः शिखरजी की ओर प्रस्थान कर दिया ।
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बिहार - अतीत युग में बहुत उन्नत प्रदेश था । तीर्थंकरों के अधिकांश कल्याणक इसी प्रदेश में हुए हैं। तीर्थंकरों, श्रमण-श्रमणियों के सतत विचरण से - उनके धर्मोपदेश से पावन बना हुआ । बौद्ध विहारों, मठों की अधिकता से इसे बिहार नाम प्राप्त हुआ था ।
लेकिन आज स्थिति बिल्कुल ही विपरीत है। हिंसा का साम्राज्य छाया हुआ है, चोर-पल्लियाँ हैं, जन-जीवन असुरक्षित है, सवर्ण और असवर्णों के संघर्ष होते रहते है । काम-धन्धे, व्यापार आदि का HIT हो गया है । खेती बाडी भी स्त्रियाँ करती हैं, पुरुष तो ताड़ी पीकर पड़े रहते हैं । मद्य माँ आदि का प्रयोग खूब होता है। मछली पकड़ने का धन्धा आम हो गया है। छोटे-छोटे बच्चे भी मछली पकड़ने में चतुर हैं। कुल मिलाकर यह प्रदेश अवनत स्थिति में है। बिहार अपने प्राचीन संस्कृति एवं गौरव को खो चुका है ।
विहार करते-करते हम लोग ऐसे स्थान पर पहुँच गये जहाँ तीर्थराज सम्मेतशिखरजी स्पष्ट दिखाई पड़ता है | सबसे ऊँची टोंक भ० पार्श्वनाथ की है। जैसे ही उसके दर्शन हुए सिर श्रद्धा से झुक गये और हाथ मुक्तशुक्ति मुद्रावत् बन गये ।
गुरुवर्याजी ने 'बीस कोस से शिखर देख्यो' इस मधुर, सरस स्तवन कड़ी से हम लोगों का ध्यान आकर्षित किया । कितना सत्य कहा है स्तवनकार ने, अभी सम्मेत शिखर बीस कोस दूर था कि फिर भी वहीं से हम लोगों को शिखर के दर्शन हो रहे थे । दर्शन करते ही हृदय में जैसे नव स्फूर्ति और उल्लास
भर आया ।
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