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खण्ड १ | जीवन ज्योति
डाक्टर ने इंजेक्शन लगाया और नीचे उतरने लगीं । अभी वह जा भी नहीं पाई थीं कि पूज्यवर्या ने चरितनायिका जी से कहा-सज्जनश्रीजी ! मेरी तो छाती में जलन हो रही है ।
चरितनायिका ने तुरन्त डाक्टर को आवाज दी । डाक्टर लौटीं । पू० वर्या की दशा देखकर चकित रह गई। अचानक यह क्या हो गया ? क्षण भर में समझ गई इंजैक्शन रीएक्शन कर गया। अपना बैग टटोला लेकिन पेनिसिलिन के रिएक्शन को समाप्त कर दे, ऐसा कोई इन्जेक्शन, टेबलेट या कैप्सूल नहीं मिला । तुरन्त एक इन्जैक्शन लेने के लिए दौड़ाया।
तब तक पू० वर्या बेहोश हो चुकी थीं । इंजैक्शन आने पर लगाया भी; परन्तु पेनिसिलिन का शॉक अपना काम पूरा कर चुका था; नया इंजैक्शन बेअसर साबित हुआ ।
पू० श्री की जिह्वा बाहर निकल आई । चरितनायिका जी ने उनका सिर अपनी गोद में ले लिया । नब्ज टटोली तो गायब ! सारा शरीर ठंडा पड़ चुका था। दूसरा डाक्टर बुलवाया। वह आया तब तक तो खेल खत्म हो चुका था, हंस उड़ चुका था। चरितनायिका की गोद में गुरुवर्या की आत्मा ने स्वर्ग प्रयाण कर दिया था, नश्वर देह ही वहाँ पड़ी थी।
सभी को घोर दुःख हुआ। पू० प्रवर्तिनी जी भी इस वज्रपात से विह्वल हो गई थीं। सन्ध्या समय श्राविकाएँ प्रतिक्रमण के लिए आती थीं, वे भी इस अघटित से घोर दुखी हुई।
तथ्य यह है कि मौत बहाने ढूढ़ती है। उपयोगश्री जी म० सा० के लिए पेनिसिलिन का इन्जैक्शन ही काल का पैगाम बन गया । प्राणी हारता है और काल जीतता है । यहाँ भी काल विजयी हुआ।
उपयोगश्रीजी म. सा. विशिष्ट व्यक्तित्व वाली आर्यारत्न थीं। वे गुरुसेवा में सदा तत्पर रहती थीं । उत्तम संयमी जीवन, मधुर-गम्भीर वाणी, विशाल सहृदयता, उदारता, सुन्दर व्यवहार कुशलता, अनुपम मेधा सभी कुछ था पूज्या उपयोगश्रीजी में । गुरुवर्या की सेवा में इतनी तत्पर कि मात्र तीन चातुर्मासों के अतिरिक्त अपनी गुरुवर्या से कभी अलग नहीं रहीं। निस्पृहता इतनी कि अपने उपदेशों से प्रभावित होकर जिन्होंने दीक्षा लेने की भावना व्यक्त की उन सबको अपनी शिष्या न वनाकर गरुवर्या की शिष्या घोषित किया। चरितनायिकाजी की दीक्षा में भी आपकी ही प्रेरणा और सद्प्रयत्न थे; किन्तु इन्हें भी गुरुवर्या पूज्य प्रवर्तिनी ज्ञानश्रीजी म० सा० की शिष्या ही घोषित करवाया।
ऐसी निस्पृह सेवाभावी साध्वीरत्न के स्वर्गवास से पूरा समाज ही शोक सागर में निमग्न हो गया, शवयात्रा में हजारों की जनमेदिनी थी । सभी अपनी शोक श्रद्धांजलि समर्पित कर रहे थे।
___ दुःख तो साध्वी मंडल को भी बहुत हुआ, किन्तु जैन साधना का प्रथम सोपान ही समता है अतः समतापूर्वक इस वज्र प्रहार को साध्वी मंडल ने सहन किया।
पूज्याश्री के देवलोक के पश्चात पू० प्रवर्तिनीजी के मंडल की सम्पूर्ण जिम्मेदारी चरितनायिका जी पर आ गई । अतः चातुर्मास तथा शेष काल में कहीं जाने का प्रश्न ही समाप्त हो गया और पू० प्र० वर्या की सेवा शुश्रूषा में संलग्न हो गई है। चरितनायिका का विशिष्ट गुण, सेवा
चरितनायिका जी में सेवा का विशिष्ट गुण है । यद्यपि आपका बचपन लाड़-प्यार में बीता, कभी काम करने का अवसर ही न आया; शादी भी वड़े घर में हुई; फिर भी सेवा के लिए सदा तत्पर
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