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खण्ड १ | जीवन ज्योति :
परन्तु फिर भी जैसी कि लोकोक्ति है-जब तक साँस, तब तक आस । जीवन बचाने का मनुष्य हर सम्भव प्रयास करता ही है । पू. प्रवर्तिनीजी की साँस भी चल रही थी। अतः लेडी डाक्टर को बुला कर इंजैक्शन भी लगवाया गया पर कोई परिणाम न निकला।
पू. प्रवर्तिनी जब से बेहोश हुईं तभी से नवकार मन्त्र की धुन, औपदेशिक भजन, सज्झाय, स्तवन आदि होते रहे।
आखिर चैत्र कृष्णा १० का दुर्भाग्यपूर्ण दिन आया । साँस धीमी होते-होते संध्या के ६-५० पर बन्द हो गई । हल्की सी फट की आवाज हुई, जिसे समीप बैठी चरितनायिकाजी ने सुना और प. प्रवर्तिनी जी का आत्मा सहस्रार केन्द्र से निकलकर, अपने ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण स्वर्ग की ओर प्रयाण कर गया।
गुरुवर्याजी का जीवन जल में कमलवत् सर्वथा निर्लेप था। ज्ञान-दर्शन-चारित्र की ज्योति, सरलता, कोमलता की साक्षात् प्रतिमा, तात्विक ज्ञान की प्रज्वलित प्रभा, अप्रमत्त साधिकार ज्ञानध्यानजपयोगिनी, सर्वथा निश्छल स्वभाव, दुराव-छिपाव रहित सर्वथा सरल-सहज जीवन था आपश्री का।
उज्ज्वल गेहुंआ रंग, स्मितमयी तेजस्वी मुखाकृति, तप. स्तेज से दीप्त भाल, परमशांत अधखुले नयन, सरल किन्तु तीक्ष्ण नासिका, मध्यम कद, सुन्दर देहयष्टि, अत्यन्त कोमल करतल, शंखावर्त जाप की अभ्यस्त अँगुलियाँ, तर्जनी आदि पर घूमता अँगूठा-ऐसा आकर्षक और प्रभावशाली बाह्य व्यक्तित्व था आपश्रीजी का । जिन्होंने उनके इस रूप को देखा है, आज भी वह उनके नेत्रों में चलचित्र की तरह घूमता रहता है।
संसारी जीवन में भी आप सिर्फ बैलगाड़ी और ऊँट गाड़ी में ही बैठीं । अन्य किसी वाहन का उपयोग ही नहीं किया।
किन्तु संसारी जीवन रहा ही कितना ! ६ वर्ष की आयु में माता-पिता ने विवाह के बंधन में बाँध दिया । लेकिन भावी को तो उनका उत्तम संयमी जीवन मंजूर था। विवाह के छह महीने बाद ही पतिदेव का स्वर्गवास हो गया। ससुर गृह जाने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं हुआ। १३ वर्ष की किशोर वय में ही स्वनाम धन्या पू. पुण्यश्रीजी म. सा. के सान्निध्य में भागवती दीक्षा स्वीकार करके संयम के कंटकीय मार्ग पर चल पड़ी । ७० वर्ष तक निर्दोष संयम का पालन किया और ८३ वर्ष की आयु में इस नश्वर शरीर का त्याण कर दिया। .
___ आपश्री की अन्तिम यात्रा में हजारों व्यक्ति सम्मिलित हुए और सश्रद्धा अश्र श्रद्धांजलि समर्पित करके अपने-अपने गन्तव्य स्थानों की ओर चले गये । एक चमत्कार : आँखों देखा
पूज्या प्रवर्तिनीजी के प्रति अनन्य श्रद्धा थी मद्रास निवासी श्रीमान मिश्रीमलजी और उनकी पत्नी की । वे परिवार सहित पूज्याश्री के अन्तिम दर्शनों के लिए जयपुर आये, लेकिन गाड़ी के लेट होने से अन्तिम दर्शन न हो सके । संध्या हो चुकी थी । सीधे मोहनवाड़ी पहुँचे । देखा तो सिर की ओर दिव्य आभा विकीर्ण ज्योति अभो भी प्रज्वलित है जो चारों ओर सुगन्धमय प्रकाश विकीर्ण कर रही है।
इस चमत्कार को देखकर वे अभिभूत हो गये । साध्वियों को जब सुनाया तो सभी श्रद्धावलत हो गई।
पू. प्रवर्तिनीजी के वियोग से संपूर्ण साध्वीमण्डल स्वयं को अनाथ सा अनुभव कर रहा था, सभी को गहरा शोक था। ऐसे समय में पू. श्रीविजयश्रीजी म. सा. पू. श्री कल्याणश्रीजी म. सा, आदि ने सबको धैर्य बंधाया, समवेदना प्रकट की।
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