________________
३८
जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्री
यद्यपि सभी पूज्यवरों की अपनी-अपनी प्रवचन शैली, भाषा प्रवाह और रसमयता थी किन्तु सज्जनश्री जी म. सा. की शैली में कुछ ऐसा अद्भुत आकर्षण था, भाषा में कुछ ऐसा रंग था, बोलीवाणी में कुछ ऐसी मिश्री सी मिठास थी कि तालियों की गड़गड़ाहट से सारा पांडाल गूंज उठता, श्रोताओं पर आपकी भाषा का रंग चढ़ जाता, आपकी सुरीली शब्दावली उनके कानों से होकर हृदय तक पहुँच जाती, तन-मन सब सराबोर हो जाता। जयपुर संघ आपश्री को अमूल्य दिव्यमणि के समान मानने लगा था।
चरितनायिका जी के प्रवचनों का मुख्य विषय सेवा होता । आप विभिन्न तर्कों और उदाहरणों से सेवा का महत्व प्रतिपादित करतीं और सेवाधर्म को जीवन में उतारने की प्रेरणा देती।
आपकी कथनी-करनी में एकता है, उनके जीवन में भी सेवाधर्म साकार है। यद्यपि भर्तृहरि ने सेवाधर्म को अत्यन्त कठिन और योगियों के लिए भी अगम्य कहा है तथापि उसी अति कठिन सेवाधर्म को अपये अपना सहज स्वभाव बना लिया है।
पू० प्रवर्तिनी श्रीज्ञानश्रीजी म. सा. का महाप्रयाण संवत् २०२३-पू. प्रतिनीजी म. सा. की वार्धक्यावस्था पूर्णता पर थी किन्तु उनकी ज्ञान-ध्यानसाधना यथावत् चल रही थी। शरीर सामान्यतः स्वस्थ ही था। स्फूर्ति और अप्रमत्तता थी । यद्यपि सेवा में साध्वियाँ तत्पर रहती थीं; पर वे अपना सब काम स्वयं ही करती थीं। आलस्य का नाम भी नहीं था। चैत्र कृष्णा ४ को चरितनायिका जी से केश लोंच भी करवाया । स्थण्डिल के लिए २ मंजिल नीचे पधारती थीं।
__चैत्र कृष्णा ७ का दिन, प्रातः का समय, पूज्या प्रवर्तिनीश्री जी म. सा० स्थंडिल के लिए २ मंजिल नीचे उतरी । सदा की भाँति चरितनायिका जी साथ ही थीं। पूज्या प्रवर्तिनी जी तिरपनी में पानी भर रही थीं कि सहसा ही बोल उठी-सज्जनश्रीजी ! मेरा हाथ नहीं उठता।
चरितनायिकाजी एकदम घबड़ा गई, अन्य साध्वियों को बुलाया, सभी मिलकर पूज्याश्री को पाट पर ले आई । उस समय तक प्रवर्तिनी जी को कुछ होश था, बोलना चाहा पर न जबान हिली और न ही आवाज निकली, बेसुध हो गयीं।
प्रातः पुजा आदि के उपरान्त श्रावक-श्राविका प्रवर्तिनी जी से मांगलिक सुनने आते थे, वे आये और आपकी यह दशा देवकर चिन्तित हो गये। तुरन्त डाक्टर बुलवाया। उसने दशा का निरीक्षण करके बताया-आपको हेमरेज (दिमाग की नस फट जाना) हो गया है, साथ ही पक्षाघात (पेरेलिसिस) का भी हल्का सा असर है। इसकी मियाद ७२ घण्टे है। बचना तो बहुत ही मुश्किल है। फिर भी हॉस्पीटल ले चलिए। हम अपना पूरा प्रयास करेंगे कि जीवन लौट आये।
इतना कहकर डाक्टर चला गया। सभी साध्वी और श्रावक-श्राविकाओं ने मिलकर सलाह की और इस निर्णय पर पहुंचे कि हॉस्पीटल नहीं ले जाना।
इस निर्णय का एक आधार पू. प्रवर्तिनीजी की इच्छा भी थी। उन्होंने साध्वियों से कह रखा था--यदि मैं बेहोश हो जाऊँ तो न कभी हॉस्पीटल ले जाना और न डाक्टरों का हाथ मेरे शरीर से लगवाना।
स्थिति यह थी कि पू. प्रवर्तिनीजी की ७० वर्ष की लम्बी संयम पर्याय में न कभी पुरुष का स्पर्श हुआ था और न डोली में ही बिठाने का प्रसंग उपस्थित हुआ । अतः सम्पूर्ण साध्वी मंडल और प्रमुख श्राविका शिखरबाई सा. आदि द्वारा हॉस्पीटल न ले जाने का निर्णय किया गया।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org