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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी अभक्ष्यभक्षण का त्याग कराते हुए झुन्झनु सीमा में पहुँचे। श्रद्धालु संघ ने बड़ी धूम-धाम से नगरप्रवेश कराया।
। प्रतिदिन के व्याख्यान में श्रीचन्द केवली चरित्र का प्रारम्भ किया। आपकी रोचक शैली को आज भी लोग याद करते हैं। पूजा, तपस्या आदि का ठाठ लगा रहा । पूजा-प्रभावनाएँ भी खूब हुईं। तब से आज तक वहाँ के निवासी प्रति पूनम को रात्रि-जागरण व प्रभावना आदि करते आ रहे हैं ।
श्री राजेन्द्रश्रीजी म. को वाराणसीय संस्कृत विश्वविद्यालय की ज्ञानप्रभा परीक्षा में सम्मिलित होना था और उनका परीक्षा केन्द्र फतेहपुर था, अतः झुन्झनु चातुर्मास सानन्द पूर्णकर आपने फतेहपुर की ओर कदम बढ़ाये । चिडावा, पिलानी होते हुए फतेहपुर पहुँचे ।
फतेहपुर में भी जैन घर काफी हैं, व्याख्यान आदि का क्रम चलने लगा । लोग प्रभावित हुए। कुछ दिन रुकने का आग्रह किया। लेकिन आपको गुरुणीजी की सेवा में पहुँचना था अतः परीक्षा दिलवाकर जयपुर की ओर प्रस्थान किया।
श्री राजेन्द्रश्री जी म० सा० का स्वास्थ्य झुन्झनु चातुर्मास में रुग्ण रहने लगा। कभी सर्दी जुकाम खाँसी बढ़ जाते तो कभी कम हो जाते, साधारण घरेलू उपचार चलते रहे पर कोई विशेष लाभ न हुआ। जयपुर आने पर तो खाँसी-जुकाम और बड़ गये । कई वैद्यों का उपचार कराया गया पर सब व्यर्थ । आखिर स्पेशलिस्ट डाक्टर को दिखाया गया। उसने फुल टेस्ट की सलाह दी । टेस्ट हुए । एक्स रे रिपोर्ट से ज्ञात हुआ कि साध्वीजी को राजयक्ष्मा ने गम्भीर रूप से जकड़ लिया है।
उस युग में टी० बी० की कोई अक्सीर दवा भी न थी। इस रोग का नाम ही भयंकर था। सुनते ही चरितनायिका जी चिन्तित हो गईं, तन-मन से श्री राजेन्द्रश्री जी म० सा० की सेवा में जूट गईं। किन्तु उनका स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन गिरता ही गया, शारीरिक शक्ति क्षीण होती ही चली गयी । डाक्टर की चिकित्सा और चरितनायिका जी की सेवा कोई काम न आई । आखिर वि० सं० २०१२ विजयादशमी के दिन २६ वर्ष की अल्पायु में ही श्री राजेन्द्रश्रीजी म. सा. की आत्मा स्वर्ग को प्रयाण कर गई।
सर्व साध्वी मंडल और श्री संघ को हार्दिक दुख हुआ; पर काल-बली के सामने किसी का वश नहीं चलता।
श्री राजेन्द्रश्री जी म. सा. ने १२ वर्ष की अल्प संयम पर्याय में वैयावच्च, अध्ययन, शासन सेवा के साथ-साथ विभिन्न तप पंचमी पखवासा, सोलिया, नवपद ओलीतप, दश पच्चक्खाणा, बेला, तेला, अठाई आदि किये तथा अन्तिम समय में गुरुमुख से निर्यामना स्वस्थचित्त से सुनती हुई, सर्व प्रत्याख्यान करती हुई नश्वर देह का त्याग किया, अपना श्रमणी-जीवन सफल बनाया।
श्री राजेन्द्रश्रीजी म० की अस्वस्थता के कारण वि० सं० २००७ से २०१३ तक के ७ चातुर्मास चरितनायिकाजी के जयपुर में ही हुए । ये चातुर्मास आपने गुरुवर्याश्री के दर्शनार्थ आने वाले पूज्य श्रमणश्रमणी के आदर-सत्कार और ज्ञानार्जन में व्यतीत किये।
वि० सं० २०१२ में पूज्य प्रवर उपाध्याय महोदय श्री सुखसागरजी स० सा०, पूज्य श्री मंगल सागरजी म० तथा उद्भट विद्वान श्री कान्तिसागरजी म. सा. का चातुर्मास हेतु गुलाबी नगरी जयपुर
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