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भूतों से उत्पन्न होने के कारण 'भौतिक' हैं । श्रवणेन्द्रिय आकाश रूप है आकाश से उत्पन्न नहीं, क्योंकि आकाश नित्य है । नित्य द्रव्य किसी द्रव्य का समवायिकारण नहीं हो सकता, अतः 'श्रवणेन्द्रिय' स्वयं भूत-द्रव्य होने के कारण ही 'भौतिक' कहलाता है । मन भौतिक नहीं है ।
मिट्टी प्रभृति 'विषय' रूप पृथिवी हैं, सरिता, समुद्रादि 'विषय' रूप जल हैं । वह्नि एवं सुवर्णादि 'विषय' रूप तेज हैं। जिससे आँधी प्रभृति होती हैं, वे सभी वायु विषय रूप हैं । शरीरादि तीनों प्रकारों से भिन्न वायु का 'प्राण' नाम का चौथा प्रकार भी है । शरीर के भीतर चलनेवाली वायु को 'प्राण' कहते हैं । किन्तु कार्य-भेद से और स्थान- भेद से उसके प्राण, अपान, समान और व्यान ये चार नाम प्रसिद्ध हैं । शाखादि के कम्प से वायु का केवल अनुमान ही होता है, प्रत्यक्ष नहीं । क्योंकि रूपी द्रव्य का ही प्रत्यक्ष होता है । किसी का मत है कि वायु का भी स्पार्शनप्रत्यक्ष होता है । द्रव्य के चाक्षुषप्रत्यक्ष के लिए ही द्रव्य में रूप का रहना आवश्यक है 1
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राई का
विनाश भी अनन्त
अतः दोनों अनन्त
।
नित्य द्रव्यों में पृथिव्यादि चारों प्रकार के परमाणुओं का उल्लेख कर चुके हैं । वैशेषिकों का कहना है कि घटादि कार्यद्रव्यों का नाश प्रत्यक्षसिद्ध है । विनाश की परम्परा का विश्राम कहीं पर मानना आवश्यक है । ऐसा न मानने पर राई और पर्वत दोनों को एक परिमाण का मानना पड़ेगा। क्योंकि खण्डों में होगा और पहाड़ का भी विनाश अनन्त खण्डों में होगा । खण्डों से निर्मित होने के कारण समान परिमाण के होंगे। किन्तु है, अतः विनाश-परम्परा का कहीं विश्राम मानना आवश्यक है विश्राम होगा उसको ही 'परमाणु' कहते हैं । इसे मान लेने पर समान परिमाण का प्रसङ्ग उपस्थित नहीं होता है, क्योंकि दोनों के का तारतम्य ही दोनों के परिमाण में भी न्यूनाधिक का ज्ञापक होगा । परमाणु को नित्य मानना भी आवश्यक है, क्योंकि परमाणुओं को अनित्य मानने पर ऐसे द्रव्य रूप कार्यों को भी मानना पड़ेगा, जिनके अवयव नहीं हैं । किन्तु यह प्रत्यक्ष विरुद्ध होने के कारण उचित नहीं है । इस प्रकार दो परमाणुओं से द्वयणुक और तीन द्वयणुकों सेव्यसरेणु वा त्र्यणुक की उत्पत्ति होती है । व्यसरेणु में महत्त्व आ जाता है । फिर आगे की सृष्टि होती है । वैशेषिकमत के अनुसार अवयवों से जिस अवयवी की उत्पत्ति होती है, वह अवयवों से सर्वथा भिन्न वस्तु है, और उत्पत्ति से पूर्व उसकी और किसी रूप में सत्ता नहीं रहती है । इसी को 'असत्कार्यवाद' या 'आरम्भवाद' कहते हैं ।
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यह प्रत्यक्ष विरुद्ध
जहाँ पर उसका
राई और पर्वत के परमाणुओं में संख्या
आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन इन पाँच द्रव्यों का प्रत्यक्ष नहीं होता है । अतः इनके विवरण से पहिले इनकी सत्ता में अनुमान को प्रमाण रूप में उपस्थित करने की आवश्यकता होती है। क्योंकि सभी शब्दप्रमाणों में सबों की आस्था नहीं होती । किसी वस्तु की सत्ता को जहाँ अनुमान के द्वारा स्थापित करना होता है, वहाँ थोड़ा कौशल का अवलम्बन आवश्यक होता है । क्योंकि सीधे विवादास्पद वस्तु को पक्ष