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गया है, किन्तु आत्मा को अच्छी तरह समझने के लिये भी संसार के और सभी पदार्थों को समझना आवश्यक है। अपने सहधर्मियों से और विरुद्धधर्मियों से विविक्त होकर किसी व्यक्ति को समझे बिना उसका तत्त्व समझना सम्भव नहीं है। संसार की प्रत्येक वस्तु अन्य सभी वस्तुओं के साथ किसी न किसी प्रकार सादृश्य या वैसादृश्य से युक्त हैं, अतः परस्पर सम्बद्ध है। अतः एक वस्तु को समझने के लिये और सभी वस्तुओं को भी समझना आवश्यक है। सुतराम् आत्मा को समझने के लिये भी संसार के अन्य सभी वस्तुओं को समझना आवश्यक है। किन्तु संसार के असंख्य वस्तुओं को अलग अलग प्रत्येकशः समझना साधारण जनों के लिये सम्भव नहीं है । अतः महर्षि कणाद ने समझने की सुविधा के लिये जगत् को द्रव्यादि सात भागों में विभक्त किया है । फलतः इनके मत से संसार की सभी वस्तुयें द्रव्यादि सात पदार्थों में से ही कोई हो सकती हैं।
द्रव्य द्रव्य उसे कहते हैं जिसमें गुण हो या क्रिया हो । इसका यह अर्थ नहीं कि सभी द्रव्यों में सभी अवस्थाओं में गुण या कर्म रहते ही हैं, क्योंकि उत्पत्ति के समय उत्पत्तिशील पृथिव्यादि द्रव्यों में भी गुण या कर्म नहीं रहते। गुण और कम का समवायिकारण आश्रयीभूत द्रव्य ही हैं जो अपनी उत्पत्ति से पहिले नहीं रह सकता । अतः उत्पत्ति के समय द्रव्य बिना गुण या बिना कर्म के ही रहते हैं। उत्पत्ति के बाद उनमें गुण या क्रिया की उत्पत्ति होती है। आकाशादि विभुद्रव्यों में तो क्रियायें कभी रहती ही नहीं । अतः 'गुण या क्रिया से युक्त जो पदार्थ वही द्रव्य है' इस लक्षण का 'अर्थ इतना ही है कि गुण और कर्म द्रव्यों में ही रहते हैं, द्रव्य से भिन्न गुणादि में नहीं।
वस्तुतः 'द्रव्यत्व' जाति ही द्रव्य का लक्षण है। यह द्रव्यत्व जाति कहाँ रहती है ? इस को समझाने के लिए ही कम का, विशेषतः गुण का सहारा लिया जाता है। विभिन्न व्यक्तियों को किसी एक रूप से समझने के लिए उन सभी व्यक्तियों में किसी सादृश्य की आवश्यकता होती है । सभी मनुष्य परस्पर भिन्न हैं, किन्तु ठीक एक ही आकार के दो मनुष्य नहीं मिल सकते। किन्तु सभी मनुष्यों में कुछ आन्तर और बाह्य सादृश्य भी है, जिनके चलते सभी मनुष्यों में 'यह मनुष्य है' इस एक तरह का व्यवहार होता है। इस प्रकार जिन सभी व्यक्तियों में यह द्रव्य है' इस प्रकार का व्यवहार होता है, उन सभी द्रव्यों में कोई सादृश्य अवश्य ही होना चाहिये, इस सादृश्य के लिये संयोग और विभाग नाम के गुण को आचार्यों ने उपस्थित किया है। संयोग सभी द्रव्यों में समान रूप से रहनेवाला गुण है और विभाग भी । अतः सभी द्रव्य संयोग या विभाग के समवायिकारण हैं। संयोग और विभाग का समवायिकारण होना या समवायिकारणत्व नाम का धर्म ही द्रव्यत्वजाति का ज्ञापक है। संयोग और विभाग का यह समवायिकारणत्व गुणादि पदार्थों में नहीं है, अतः गुणादि पदार्थ संयोग और विभाग के समवायिकारण नहीं है, अतः उनमें द्रव्यत्व नहीं है । इसी प्रकार गुणत्वादि सभी पदार्थविभाजकधों में समझना चाहिए ।
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