Book Title: Prashastapad Bhashyam
Author(s): Shreedhar Bhatt
Publisher: Sampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay

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Page 18
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (*) इस प्रसङ्ग में कुछ लोगों का आक्षेप है कि धर्म निरूपण के लिए प्रवृत्त शास्त्र में धर्म की इतनी सी चर्चा हो और उससे असम्बद्ध द्रव्यादि पदार्थों का इतना विस्तृत वर्णन हो यह कुछ ठीक नहीं जंचता । इसी आक्षेप की प्रतिध्वनि 'धर्म' व्याख्यातुकामस्य षट्पदार्थोपवर्णनम् । सागरं गन्तुकामस्य हिमवद्गमनोपमम्' इत्यादि वचनों से होती है । इस प्रसङ्ग में वैशेपिक सिद्धान्त के अनुयाथियों का यह कहना है कि इस शास्त्र में जिस धर्म की व्याख्या की प्रतिज्ञा की गयी है वह पूर्वमीमांसा के प्रतिज्ञासूत्र में कथित 'धर्म' से भिन्न है । मीमांसको ने धर्म शब्द से यागादि क्रियायों को लिया है । ये क्रियायें केवल वेदों के द्वारा ही प्रमित हो सकती हैं । फलतः केवल वेद ही धर्मरूप क्रिया कलाप के ज्ञापक हेतु है, किन्तु इन क्षणिक क्रियाकलापों को स्वर्गादि कालपर्यन्त रहने की सम्भावना नहीं है, अतः मध्यवर्ती एक अतीन्द्रिय अपूर्व की कल्पना मीमांसक भी करते हैं। वैशेषिक गण इस अपूर्व को ही धर्म करते हैं । यह 'धर्म' केवल अनुमान से ही समझा जा सकता है । अतः जिस प्रकार मीमांसकों ने यागादि कर्मकलाप रूप धर्म के ज्ञापक प्रमाण रूप वेदों के अर्थ के निर्णय में ही अपना सारा श्रम व्यय किया है, उसी प्रकार अगर वैशेषिकगण आत्मनिष्ठ उक्त अपूर्व रूप गुण के एकमात्र साधक अनुमान और आवश्यक पदार्थ निरूपण के प्रसङ्ग में अधिक जागरूक हों तो उनके ऊपर प्रतिज्ञात अर्थ से असम्बद्ध अर्थ के अभिधान का दोष नहीं मढ़ा जा सकता । दूसरी बात यह है कि अगर वैशेषिक दर्शन के उपक्रमस्थ धर्म शब्द से भी गादि क्रियाकलापों को ही लें, तथापि द्रव्यादि के निरूपण को यागादि से सर्वथा असम्बद्ध नहीं कहा जा सकता । हेतु दो प्रकार के होते हैं एक ज्ञापक और दूसरा उत्पादक । दण्ड घट का उत्पादक कारण है और धूम वह्नि का ज्ञापक कारण है । इसी कारणत्वासाम्य से दोनों प्रकार के हेतु - बोधक पदों से हेतु में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे 'दण्डाद् घटः, धूमाद् वह्निः' इत्यादि । प्रकृत में विधिवाक्य रूप वेद धर्म के ज्ञापक कारण हैं और द्रव्यादि पदार्थ उनके उत्पादक कारण हैं। क्योंकि व्रीहि प्रभृति द्रव्य, आरुण्यादि गुण, उत्वन अवहननादि कर्म, ब्राह्मणत्वादि सामान्य, इन सबों को मीमांसासाशास्त्र में भी यागादि का सम्पादक मान गया है । इसी प्रकार इनके तत्त्वज्ञान में सहायक विशेष और समवाय का तत्त्वज्ञान भी परम्परया याग में उपकारक है फिर धर्म व्याख्या के प्रसङ्ग में द्रव्यादि पदार्थों के निरूपण करनेवालों को सागर जाने की इच्छा से हिमालय जानेवालों की उपमा देना कहां तक उचित है ? इस दर्शन के ऊपर सबसे अधिक प्रहार हुये हैं और हो रहे हैं, अपने थूथ के दार्शनिकों द्वारा और त्रयीबाह्य बौद्धादि के द्वारा भी । किन्तु इन सभी विरोधियों ने इस शास्त्र के प्रसङ्ग में आचार्य महर्षि प्रशस्तपाद को ही सत्र से प्रामाणिक व्याख्याता रूप में मानते चले आ रहे हैं । अतः प्रशस्तपादभाष्य का महत्त्व तो निर्विवाद है । तब रही बात यह भाष्य है ? या स्वतन्त्र निबन्ध ग्रन्थ है ? इस प्रसङ्ग में 'सूत्रार्थों वर्ण्यते येन' भाष्य का यह लक्षण पूर्व रूप से संघटित न होने के कारण ही विवाद उपस्थित होता है | किन्तु यह भी ध्यान देने की बात है इस दर्शन में था और दर्शनों में भी स्वतन्त्र निबन्ध ग्रन्थों की कमी नहीं है। उन सभी के ऊपर दृष्टिपात करने For Private And Personal

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