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( ४ ) वैशेषिकदर्शन और ईश्वर
सभी जानते हैं कि न्याय और वैशेषिकदर्शन के आचार्यों ने ईश्वर साधन के प्रसङ्ग में बहुत कुछ लिखा है । किन्तु वैशेषिक दर्शन के कणादरचित सूत्र में ईश्वर शब्द का स्पष्ट उल्लेख न रहने के कारण एवं सष्ट रूप से ईश्वर - साधन का कोई प्रकरण न रहने के कारण कुछ विद्वानों का कहना है कि कणाद के समय से लेकर प्रशस्तपाद से पहिले तक वैशेषिकदर्शन में ईश्वर स्वीकृत नहीं थे । अतः मूलतः यह दर्शन
ईश्वरपरक नहीं है ।
वैशेषिक दर्शन को ईश्वर-परक माननेवालों की दृष्टि इस प्रसङ्ग में कुछ भिन्न प्रकार की है। उनका कहना है कि किसी वस्तु का स्पष्ट उल्लेख न करना ही उस वस्तु के अभाव का साधक नहीं हो सकता, किसी वस्तु को अस्वीकृत करना है तो फिर उन के लिए उस प्रसङ्ग में केवल मौन साधन से ही काम नहीं चल सकता । उसके लिए उक्त वस्तु की सत्ता के विरुद्ध युक्तियों का स्पष्ट रूप से निर्देश आवश्यक है | क्योंकि किसी वस्तु की अनुक्ति ही उसकी विरुद्धोक्ति नहीं हो सकतो । अनुक्ति और विरुद्धोक्ति में बहुत अन्तर है ।
अतः प्रशस्तपाद प्रभृति आचायों ने एवं उनके अनुयायी उदयनादि आचार्यों ने ईश्वर साधन के प्रसङ्ग में अपनी चरम प्रतिभा का परिचय दिया है । एवं इस दर्शन में ईश्वर को सिद्ध मानकर उपपादन किया है। शङ्करमिश्र प्रभृत्ति सूत्र के टीकाकारों ने सूत्र
द्वारा ही ईश्वरसिद्धि का भी प्रयास किया है। उन लोगों का कहना है कि किसी विषय का स्पष्ट उल्लेख न होने पर भी उसके अन्य उपपादनों से विषय में उस विषय में उस व्यक्ति की अनुमति का पता चल जाता है। जैसे व्याकरणशास्त्र में योगविभागादि के द्वारा सूत्र में अनुद्दिष्ट बिधानों का भी आपेक्ष होता है । इसी प्रकार प्रकृत में 'तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्' ( १-१-३ ) संज्ञाकर्मत्वस्मद्विशिष्टानां लिङ्गम् ( २-१-१८ ) प्रत्यक्षप्रवृत्तत्वात्संज्ञाकर्मणः ( २-१-१६ ) इत्यादि सूत्रों के द्वारा आनुषङ्गिक रूप में ईश्वरसिद्धि का प्रयास शङ्कर मिश्रादि टीकाकारों द्वारा किया गया है।
धर्म और वैशेषिकदर्शन
वैशेषिकदर्शन का आरम्भ 'धर्मव्याख्या' की प्रतिज्ञा से हुआ है । उसके दूसरे सूत्र के द्वारा अवसर प्राप्त धर्म का लक्षण कहा गया है । और तीसरे सूत्र के द्वारा धर्म के कारणीभूत यागादि के प्रतिपादक वेदों में प्रामाण्य का प्रतिपादन हुआ है । 'धर्मविशेषप्रसूतात्' इत्यादि चौथे सूत्र के द्वारा यह उपपादन किया गया है कि द्रव्यादि छः पदार्थों के साधम्य एवं वैधर्म्य सहित तत्त्वज्ञान के द्वारा ही निःश्रेयस का लाभ होता है । उक्त तत्त्वज्ञान निवृत्तिलक्षण विशेष प्रकार के धर्म से उत्पन्न होता है । फलतः निःश्रयेस के लिये धर्म अत्यन्त आवश्यक है, अतः उसका निरूपण भी आवश्यक है, जिसके लिए इस शास्त्र का आरम्भ उचित है । फिर इसके बाद धर्म के सम्बन्ध में विशेष चर्चा नहीं दीख पड़ती है । क्कम के अनुसार और पदार्थों की तरह धर्म का भी निरूपण किया गया है । पदार्थों के निरूपण से ग्रन्थ की समाप्ति हो जाती है ।
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